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छक्खंडागमे जीवाणं
[१, ३, ७. जदसम्माइट्ठिमारणंतिय-उववादपदाणं च तत्थ अभावादो । सत्तण्डं पुढवीणं ओगाहणाभेदो मारणंतिय-उववादाणं ठविजमाणरज्जुभेदो दव्वविसेसो च वत्तव्यो । पढमपुढविमिच्छाइट्टि. मारणंतियखेत्तं तिरियलोगादो असंखेजगुणं । कुदो ? पदरंगुलस्स संखेञ्जदिभागगुणिदतद्दव्वे सेढीए संखेजदिभागेण गुणिदे तिरियलोगादो असंखेजगुणत्तुवलंभादो त्ति' एगपदेसमादिं कादूग जा उकस्सेण सगुप्पत्तिपदेसो ति मारणंतियखेत्तायामस्सुवलंभादो। ण चेदमसिद्धं, महामच्छखेत्तट्ठाणपरूवणण्णहाणुववत्तीदो। तत्थ जेण सेढीए असंखेजदिभागायामण मारणंतियं करिय मरंता बहुवा, तेण तिरियलोगस्स असंखेजदिभागतं घडदे।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठी केवडि खेत्ते, सव्व. लोए ॥७॥
एदस्स सुत्तस्स परूवणा ओघमिच्छादिटिपरूवणाए तुल्ला । णवरि वेउब्धियसमुग्धादगदजीवा तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे, तिरिक्खेसु विउव्वमाणरासी पलि
ग्दृष्टिसंबन्धी मारणान्तिक और उपपाद पदका अभाव है। यहांपर सातों पृथिवियोंकी अव. गाहनाका भेद, और मारणान्तिक तथा उपपादका स्थापित होनेवाला राजुभेद और द्रव्यविशेषका कथन करना चाहिये। पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका मारणान्तिकक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त राशिको प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे गुणित करके पुनः जगश्रेणीके संख्यातवें भागसे गुणित करनेपर तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र पाया जाता है। तथा एकप्रदेशसे लेकर उत्कृष्टरूपसे अपनी उत्पत्तिके प्रदेशतक मारणान्तिकक्षेत्रका आयाम पाया जाता है, इसलिये भी पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका मारणान्तिकक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा है। और यह कथन असिद्ध भी नहीं है। क्योंकि, महामत्स्यके क्षेत्रस्थानकी प्ररूपणा अन्यथा बन नहीं सकती है। वहांपर चूंकि जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग आयामरूपसे मारणान्तिकसमुद्धातको करके मरनेवाले जीव बहुत हैं, इसलिये तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग बन जाता है।
तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ॥७॥
इस सूत्रकी प्ररूपणा ओघमिथ्यादृष्टि प्ररूपणाके समान है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त तिर्यंच जीव तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, तिर्यंचोंमें विक्रिया करनेवाली राशि पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र घनांगुलोंसे
१ प्रतिषु 'ति ण ' इति पाठः।
२ मारणंतियसमुग्घातेणं xx सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खम्भबाहल्लेणं, आयामेणं जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जतिमागं उक्कोसेणं असंखेज्जाति जोयणाति एगदिसिं एवतिते खेत्ते xx प्रज्ञा. ३६, १८.
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