SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ३, ८.] खेत्ताणुगमे तिरिक्खखेत्तपरूवर्ण [६७ दोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तघणंगुलेहि गुणिदसेढिमेत्तो त्ति गुरूवदेसादो । ___ सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८ ॥ ___एदेण देसामासियसुत्तेण सूचिद-अत्थो वुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणवेदण-कसाय-वेउधिएहि परिणदसासणसम्मादिट्ठी केवडि खेते ? चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । रासिपमाणं भण्णमाणे सत्थाणसत्थाणरासी मूलरासिस्स संखेज्जा भागा। सेसरासीओ मूलरासिस्स संखेज्जदिभागमेतीओ। णवरि वेउव्यियस मुग्धादरासी मूलरासिस्स असंखेज्जदिभागो । कुदो ? तिरिक्खेसु विउव्वमाणजीवाणं पउरं संभवाभावादो। एत्थ ओगाहणगुणगारो संखेज्जघणंगुलमेत्तो, एगघणंगुलं वा। गुणित जगश्रेणीप्रमाण है, ऐसा गुरुका उपदेश है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतकके तियंच जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ॥ ८॥ अब इस देशामर्शक सूत्रसे सूचित अर्थको कहते हैं-स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातरूपसे परिणत सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। स्वस्थानस्वस्थान आदि उक्त राशियों के प्रमाणका कथन करने पर स्वस्थानस्वस्थान जीवराशि मूलरशिके संख्यात बहुभागप्रमाण है। तथा शेष राशियां मूलराशिके संख्यातवें भाग मात्र हैं। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त राशि मूलराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, तिर्यचों में विक्रिया करनेवाले जीव प्रचुर संभव नहीं हैं। यहां पर अवगाहनाका गुणकार संख्यात घनांगुलप्रमाण अथवा एक धनांगुल है। विशेषार्थ-यहां पर अवगाहनाका गुणकार जो संख्यात घनांगुल अथवा एक घनांगुल कहा है उसका यह भाव प्रतीत होता है कि पंचेन्द्रियपर्याप्त तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात घनांगुल प्रमाण होती है, अतः उसका घनफल लानेके लिए अवगाहनका गुणकार भी संख्यात घनांगुल ही होगा। किन्तु प्रसपर्याप्त तिर्यंचोंकी जघन्य अवगाहना घनांगुलके संख्यातवें भागप्रमाण ही है। यद्यपि इनकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाईका पृथक् पृथक् उपदेश आज नहीं पाया जाता है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख गोम्मटसारकी जी. प्र. टीकाकारने १ बादरपुण्णा तेऊ सगरासीए असंखभागमिदा । विक्किरियस सिजुत्ता पल्लासंखेज्जया वाऊ ॥ पल्लासंखेज्जाहयविदंगुलगुणिदसेतिमेचा हु । वेगुध्वियपंचक्खा भोगभुमा पुह विगुब्वति गो. जी. २५८-२५९. गो. जी. ९६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy