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________________ क्रम नं. विषय ३८ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का नानाजीवों की अपेक्षा सोपपत्तिक जघन्य कालनिरूपण ३९ उक्त जीवोंके उत्कृष्ट कालका सयुक्तिक कालवर्णन ४० एक जीवकी अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टियोंके जघन्य कालका निरूपण ४१ उपशमसम्यक्त्वकाल के अधिक माननेमें क्या दोष है, इस शंकाका समाधान करते हुए सासादन गुणस्थान के कालका सप्रमाण निरूपण ४२ एकजीव की अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टियों के उत्कृष्ट कालका सप्रमाण निरूपण ४३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल ४४ अप्रमत्तसंयत जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको क्यों नहीं प्राप्त होते, इस शंकाका समाधान ४५ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपना काल पूरा कर पीछे संयमको, अथवा संयमासंयमको क्यों नहीं प्राप्त होता, इस शंकाका समाधान ४६ नाना जीवों की अपेक्षा सम्यमिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट काल ४७ एक जीवकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के जघन्य कालका तदन्तर्गत शंका-समाधानपूर्वक निरूपण ४८ एक जीवकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके उत्कृष्ट कालका सोपपत्तिक प्रतिपादन ४९ असंयतसम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवों की अपेक्षा काल, तथा Jain Education International कालानुगम-विषय-सूची पृ. नं. क्रम नं. ३३९ ५० एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टियों के जघन्य कालका सनिदर्शन निरूपण ३४० ३४१ 93 ३४२ ३४२-३४३ ३४३ विषय तत्सम्बन्धी अनेकों शंकाओंका समाधान 39 | ५६ प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतों का नाना जीवोंकी अपेक्षा कालनिरूपण ५७ एक जीवकी अपेक्षा प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतों के जघन्य कालका सोपपत्तिक निरूपण नामा ૨૪ ५८ एक जीवकी अपेक्षा प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतों का उत्कृष्ट काल ५९ चारों उपशामक का जीवोंकी जघन्य काल ६० अप्रमत्तसंयतको अपूर्वकरण गुणस्थान में ले जाकर और द्वितीय समय में मरण कराके अपूर्वकरण गुणस्थानके एक समयकी प्ररूपणा क्यों नहीं की, इस शंकाका समाधान ३४५ ६१ नाना जीवोंकी अपेक्षा चारों उपशामकों के उत्कृष्ट कालका सोपपत्तिक निरूपण 93 ५१ एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टियों के जघन्य कालका तदन्तर्गत शंका-समाधानपूर्वक सोपपत्तिक निरूपण ५२ संयतासंयत जीवोंका नाना जीवों की अपेक्षा काल ५३ एक जीवकी अपेक्षा संयतासंयतोंका जघन्य काल ५४ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संयमासंयमको क्यों नहीं प्राप्त होता, इस शंकाका समाधान ५५ एक जीवकी अपेक्षा संयतासंयतोंका उत्कृष्ट काल For Private & Personal Use Only ( ४९ ) प्र. नं. ३४५-३४६ ३४६-३४७ ३४७-३४८ ३४८ ३४९ 33 ३५० ३५० ३५०-३५१ ३५१ ३५२ "" ३५२-३५३ www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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