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________________ ( ५० ) क्रम नं. विषय ६२ एक जीवकी अपेक्षा चारों उपशामकों का जघन्य काल ६३ एक जीवकी अपेक्षा चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट काल ६४ चारों क्षपक और अयोगिकेवलीका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य तथा उत्कृष्ट काल ६५ उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ६६ सयोगिकेवली जिनका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल निरूपण ( नरकगति ) ६७ नारकी मिथ्यादृष्टि जीवोंका नानाजीवों की अपेक्षा काल निरूपण ६८ एक जीवकी अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल ६९ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंका काल वर्णन षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृ. नं. क्रम नं. ३५३-३५४ Jain Education International आदेश से काल प्रमाण-निर्देश १ गतिमार्गणा ३५४ ३५४-३५५ ३५५ ३५६-३५७ ३५७–३६३ ३५७ ३५७-३५८ ७० असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियों का नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल निरूपण ३५८-३५९ ७१ सातों पृथिवियोंके नारकियोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका प्रतिपादन ७२ सातों पृथिवियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि मारकियोंका काल वर्णन ७३ सातों पृथिवियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि नारकियोंका नाना विषय और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालों का सोपपत्तिक निरूपण ३६०-३६१ ( तिर्यंचगति ) ७४ तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा काल वर्णन ७५ एक जीवकी अपेक्षा तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल ७६ 'असंख्यात पुगलपीरर्वतन' इस वचनसे अनन्तताकी उपलब्धि होती है, अतः सूत्रमेंसे अनन्त पद क्यों न निकाल दिया जाय, इस शंकाका समाधान ७७ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि तिर्यचोंका काल प्रमाण ७८ असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यचोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ७९ संयतासंयत तिर्यचोंका नाना और एकजीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ३५८८० पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और योनिमती मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ८१ पंचानवे पूर्वकोटियों की पूर्वकोटीपृथक्त्वसंज्ञा कैसे हो सकती है, इस शंकाका समाधान ८२ लब्ध्यपर्याप्तकों में स्त्रीवेद की संभवता-असंभवताका विचार ३६१ | ८३ उक्त तीनों प्रकारके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यचोंका काल वर्णन For Private & Personal Use Only प्र. नं. ३६१-३६३ ३६३-७२ ३६३-३६४ ३६३ ३६४ 33 ३६५-३६६ ३६६ ३६७-३६९ ३६८ ३६९ 13 www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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