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________________ ३५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ३५. तं जधा- एको सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी वा पुव्वं पि बहुवारपरिणमिदमिच्छत्तो संकिलेस पूरेदूग मिच्छादिट्ठी जादो । सबजहण्णमंतोमुहुत्तकालमच्छिय विसुद्धो होदूण सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं वा पडिवण्णो। एवं मिच्छादिहिस्स जहण्णकालपरूवणा गदा। उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि ।। ३५॥ तं जहा- एको तिरिक्खो मणुसो वा सत्तमाए पुढवीए उक्वण्णो। तत्थ मिच्छत्तेण सह तेत्तीसं सागरोवमाणि अच्छिय उवाट्टिदो । लद्धाणि णेरइयमिच्छादिहिस्स तेत्तीसं सागरोवमाणि । सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥३६ ॥ कुदो ? णिरयगदिम्हि एदेसिं दोण्हं गुणट्ठाणाणं गाणेगजीवजहण्णुक्कस्सपरूवणाणं एदेसिं चेव ओघणाणेगजीवजहण्णुकस्सपरूवणाहिंतो भेदाभावा । असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥३७॥ .............................. यह इस प्रकार है - एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव, जो कि पहले भी बहुत बार मिथ्यात्वको परिणत हो चुका है, संक्लेशको पूरित करके मिथ्या दृष्टि हो गया। वहां पर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह कर, विशुद्ध होकर, सम्यक्त्वको अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे मिथ्यादृष्टिके जघन्य कालकी प्ररूपणा हुई। एक जीवकी अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है ॥३५॥ वह इस प्रकार है - एक तिर्यंच अथवा मनुष्य सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। वहां पर मिथ्यात्वके साथ तेतीस सागरोपम काल रह कर बाहर निकला। इस प्रकार नारकी मिथ्यादृष्टिके तेतीस सागरोपम उपलब्ध हुए। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकी जीवोंका एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान है ॥३६॥ क्योंकि, नरकगतिमें इन दोनों गुणस्थानोंके नाना जीव और एक जीवसम्बन्धी जघन्य काल और उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणाओंका इन्हीं दोनों गुणस्थानोंकी ओघगत नाना जीव और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणाओंसे भेद नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ३७ ।। १ सासादनसम्यग्दृष्टे: सम्यग्मिध्यादृष्टेश्व सामान्योक्तः काल । स. सि.,.. २ असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः काकः । स. सि. १, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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