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________________ १, ५, ३९.] कालाणुगमे णेरइयकालपरूवणं [३५९ कुदो ? णिरयगदिम्हि असंजदसम्मादिट्ठिविरहिदकालाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३८ ॥ तं जहा- एगो मिच्छादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा सम्मत्ते बहुवारं पुव्वं परियट्टिदूग अच्छिदो विसुद्धो होदूण सम्मत्तं पडिवण्णो । तत्थ सव्वलहुमंतोमुहुनमच्छिय सम्मामिच्छत्तं मिच्छत्तं वा गदो । एवं णिरयगदिअसंजदसम्मादिहिस्स जहण्णकालपरूवणा गदा । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ३९ ॥ तं जधा-एको तिरिक्खो मणुस्सो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी सत्तमाए पुढवीए उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । पुणो अंतोमुहुत्तावसेसआउद्विदीए मिच्छत्तं गदो (४)। आउगं बंधिदण (५) अंतोमुहुतं विस्समिय (६) उवट्टिदो। एवं छहि अंतोमुहु तेहि ऊणाणि तेत्तीस सागरोवमाणि असंजदसम्मादिद्विस्स उक्कस्सकालो । क्योंकि, नरकगतिमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोसे विरहित कालका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि नारकीका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।। ३८ ॥ वह इस प्रकार है- एक मिथ्यादृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव, जो कि सम्य. क्त्वमें पहले बहुतवार परिवर्तन कर चुका है, पुनः विशुद्ध हो करके सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। वहां पर सर्वलघु अन्तर्मुहर्त काल रह करके सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे नरकगतिमें असंयतसम्यग्दृष्टिके जघन्य काल की प्ररूपणा हुई। असंयतसम्यग्दृष्टि नारकीका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है ॥ ३९ ॥ वह इस प्रकार है - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखने वाला एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। पुनः छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१), विश्राम लेता हुआ (२), विशुद्ध होकर (३), वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण आयुकर्मकी स्थितिके अवशेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। वहां आगामी भवकी आयुको बांधकर (५), अन्तर्मुहूर्त काल विश्राम लेकर (६), निकला। इस प्रकार छह अन्तमुहूतास कम तेतीस सागरापम प्रमाण असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल होता है। १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुर्तः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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