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________________ ३६०) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, ४०. पढमाए जाव सत्तमाए पुढवीए गैरइएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ४०॥ कुदो ? मिच्छादिविविरहिदसत्तण्डं पुढवीणं सबद्धा अभावादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ४१ ॥ तं जहा- अप्पप्पणो पुढवीसु द्विदअसंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी वा बहुसो मिच्छत्तचरो परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गदो । सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुव्विल्लगुणेसु अण्णदरगुणं गदो । एवं सत्तण्हं पुढवीणं मिच्छादिट्ठिपादेकमंतोमुहुत्तपरूवणा कदा । उक्कस्सेण सागरोवमं तिणि सत्त दस सत्तारस वावीस तेत्तीसं सागरोवमाणि ॥ ४२ ॥ ___ पढमाए पुढवीए एकं सागरोवमं, विदियाए पुढवीए तिणि सागरोवम, तदियाए पुढवाए सत्त सागरोवमाणि, चउत्थीए पुढवीए दस सागरोवमाणि, पंचमीए पुढवाए सत्तारस सागरोवमाणि, छट्ठीए पुढवीए वावीस सागरोवमाणि, सत्तमीए पुढवीए तेत्तीस प्रथम पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥४०॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवोंसे रहित सातों पृथिवियोंके नारकियोंका सर्वकाल अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त पृथिवियोंके नारकी मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ११॥ वह इस प्रकार है - अपनी अपनी पृथिवियों में स्थित, तथा जिसने पहले भी बहुतवार मिथ्यात्वको प्राप्त किया है ऐसा कोई असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा सम्याग्मिथ्यादृष्टि जीव, परिणामोंके निमित्तसे मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । वहां पर सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके पूर्वोक्त दोनों गुणस्थानों से किसी एक गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे सातों पृथिवियोंके प्रत्येक मिथ्यादृष्टि जीवके अन्तर्मुहूर्त कालकी प्ररूपणा की गई। उक्त सातों पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल क्रमशः एक सागरोपम, तीन, सात, दस, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपमप्रमाण है ।। ४२॥ प्रथम पृथिवीमें एक सागरोपम, द्वितीय पृथिवीमें तीन सागरोपम, तृतीय पृथिवीमें सात सागरोपम, चौथी पृथिवीमें दश सागरोपम, पांचवीं पृथिवीमें सत्तरह सागरोपम, छठी पृथिवीमें बाईस सागरोपम, और सातवीं पृथिवीमें तेतीस सागरोपम मिथ्यादृष्टि नारकोंका १ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः । तत्त्वार्थसू . ३, ६. उत्कर्षेण यथासंख्यं एक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश- द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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