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________________ ............ १, ५, ४४.] कालाणुगमे णेरइयकालपरूवणं [३६१ सागरोवमाणि मिच्छादिहिस्स उक्कस्सकालो। कुदो ? एदेहितो अधिगबंधाभावा । तं पि कुदो णव्वदे? एकं तिय' सत्त दस तह सत्तारह दु-तिहदेक्कअधिय दस । उवही उक्कस्सहिदी सत्तण्हं होइ पुढवीणं ॥ ३४ ॥ इदि णिरयाउबंधसुत्तादो। सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ४३ ॥ कुदो ? दोण्हं गुणट्ठाणाणं णाणाजीवे पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण दोण्हं पि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण छ आवलियाओ अंतोमुहुत्तमेवमादिणा भेदाभावा । असंजदसम्मादिट्टी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ४४ ॥ तं जहा- सत्तण्डं पुढवीणं असंजदसम्मादिद्विविरहिदाणं सबद्धाणुवलंभादो । उत्कृष्ट काल है, क्योंकि, इनसे अधिक आयुबंधका अभाव है। शंका- यह कैसे जाना जाता है कि सूत्रोक्त कालसे अधिक नारकायुके बंधका अभाव है ? समाधान-एक, तीन, सात, दश, तथा सत्तरह सागरोपम, तथा दोसे गुणित एक अधिक दश (२४११=२२) अर्थात् बाईस सागरोपम, तथा तीनसे गुणित ग्यारह ( ३४११=३३) अर्थात् तेतील सागरोपम, इस प्रकार सातों पृथिवियोंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है ॥३४॥ इस नारकायुके बंधप्रदर्शक सूत्रसे जाना जाता है कि सूत्रोक्त कालसे अधिक नारकायुके बंधका अभाव है। सातों पृथिवियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जवि सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान है ॥ ४३ ॥ क्योंकि, उक्त दोनों गुणस्थानोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल क्रमशः एक समय और अन्तर्मुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट काल दोनों गुणस्थानोंका पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। एक जीवकी अपेक्षा दोनों गुणस्थानोंका क्रमशः जघन्य काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट काल छह आवलियां और अन्तर्मुहूर्त है । इत्यादि रूपसे कोई भेद नहीं है सातों पृथिवियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥४४॥ वह काल इस प्रकार संभव है -कि सातों पृथिवियां किसी भी कालमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित नहीं पाई जाती हैं। १ आ क प्रत्योः एक विदा' अप्रतौ 'एकट्रिय ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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