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________________ ३६२] छक्खंडागमे जीवहाणं [१, ५, ४५. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥४५॥ तं जहा-सत्तसु पुढवीसु ट्ठिदबहुसो सम्मत्तचरअट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी वा सम्मत्तं पडिबज्जिय अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा पडिवण्णो । एसो सत्तसु पुढवीसु असंजदसम्मादिट्ठिजहण्णकालो परूविदो । उक्कस्सं सागरोपमं तिणि सत्त दस सत्तारस वावीस तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ४६॥ तं जधा--एको तिरिक्खो मणुसो वा अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी पढमाए पुढवाए वा एवं जाव सत्तमीए वा उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४)। सम्मत्तेण अप्पप्पणो उक्कस्साउद्विदिमच्छिय णिप्फिडिदूण मणुसेसु उववण्णो। एवं तीहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणा अप्पप्पणो उक्कस्साउद्विदी असंजदसम्मादिहिउक्कस्सकालो होदि । णवरि सत्तमाए छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणा उक्कस्सहिदि त्ति वत्तव्वं, तत्थ मिच्छत्तगुणेण विणा णिग्गमाभावा । एक जीवकी अपेक्षा सातों पृथिवियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंका जघन्य काल अन्तमुहूते है ॥ ४५ ॥ वह इस प्रकार है- सातों ही पृथिवियों में स्थित पूर्व में अनेकवार सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त हो कर और अन्तर्मुहूर्त काल रह कर पुनः मिथ्यात्वको अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। यह सातों ही पृथिवियों में असंयतसम्यग्दृष्टिका जघन्य काल प्ररूपण किया गया। सातों पृथिवियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंका उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ कम एक सागरोपम, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम है ॥ ४६॥ वह इस प्रकार है- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखने वाला एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव पहली पृथिवीमें, अथवा दूसरी पृथिवीमें, इस प्रकारसे लगा कर सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१), विश्राम लेता हुआ (२), विशुद्ध होकर (३), वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४), सम्यक्त्वके साथ अपनी अपनी पृथिवीकी उत्कृष्ट आयुकर्मकी स्थितिप्रमाण रह करके वहांसे निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । इस प्रकारसे तीन अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अपनी अपनी पृथिवीकी उत्कृष्ट आयुस्थिति ही उस उस पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल होता है । विशेष बात यह है कि सातवीं पृथिवीमें छह अन्तर्मुहूतोंसे कम उत्कृष्ट स्थिति होती है, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि, वहांसे मिथ्यात्वगुणस्थानके विना निर्गमनका अभाव है, अर्थात् मिथ्यात्वके अतिरिक्त अन्य गुणस्था' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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