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________________ १, ५, ४८.] कालाणुगमे तिरिक्खकालपरूवणं [३६३ असंजदसम्मादिविम्मि आउअं बंधिय विस्संतो होदूण मिच्छत्तं गंतूण सत्तमपुढवीदो णिस्सरिदे सम्मत्तकालो बहुगो लब्भदि त्ति वुत्ते ण, सत्तमपुढविणेरइयाणं मणुसेसुववादाभावा । असंजदसम्मादिट्ठीणं पि णिरयतिरिक्खाउबंधाभावा । जेण गुणेण आउअबंधस्स संभवो अत्थि, तेणेव गुणेण णिग्गमादो च ।। तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥४७॥ कुदो १ मिच्छादिट्ठीहि विणा सव्वद्धा तिरिक्खगदीए अणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥४८॥ तं जहा- एक्को सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदो वा बहुसो मिच्छत्तचरो मिच्छत्तं पडिवण्णो । सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुव्वुत्तगुणेसु अण्णदरगुणं नोंसे निकलना नहीं हो सकता है। शंका- असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें आगामी भवकी आयुको बांधकर विश्रान्त होता हुआ मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सातवीं पृथिवीसे निकलने पर सम्यक्रमका काल बहुत प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सातवीं पृथिवीके नारकोका मनुष्यों में उपपाद नहीं होता है । तथा, असंयतसम्यग्दृष्टियोंके भी नारक और तिर्यंच आयुके बंधका अभाव है। दूसरी बात यह भी है कि जिस गुणस्थानसे आयुका बंध संभव है, उस ही गुणस्थानसे उसका निर्गमन भी होता है। तिर्यंचगतिमें, तियंचोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ४७ ॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवोंके बिना किसी भी काल में तिर्यंचगति नहीं पाई जाती है। एक जीवकी अपेक्षा तिथंच मिथ्यादृष्टि जीवका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥४८॥ ___ वह इस प्रकार है- पहले बहुतवार मिथ्यात्वमें भ्रमण किया हुआ एक सम्य. ग्मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत जीव मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहां पर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालं रह करके पूर्वोक्त गुणस्थानों में से किसी एक गुण • १ तिर्यगतौ तिरश्च मिथ्यादृष्टीना नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः। स. सि. १,८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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