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________________ ३६४ - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ४९. गदो । एवं जहण्णकालपरूवणा गदा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरिय, ॥ ४९ ॥ . एको मणुसो देवो णेरइओ वा अणादियछव्वीससंतकम्मिओ मिच्छादिट्ठी तिरिक्खेसु उववण्णो । आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ताणि पोग्गलपरियट्टाणि परियट्टिदूण अण्णगर्दि गदो । असंखेज्जपोग्गलपरियट्टाणि त्ति वयणादो अणंतोवलद्धी होदि त्ति अणंतग्गहणं किण्णावणिज्जदे ? ण, अणंतग्गहणमंतरेण पोग्गलपरियट्टस्स अणंतत्तुवलद्धीए उवायाभावादो । पोग्गलपरियट्टाणि आवलियाए असंखेजदिमागमेत्ताणि चेवेत्ति कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदवक्खाणा तदवगदीए । सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥५०॥ कुदो ? णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सपरूवणाहि विसेसाभावा । स्थानको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे तिर्यंच मिथ्यादृष्टिके जघन्य कालकी प्ररूपणा हुई। एक जीवकी अपेक्षा तियेच मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट काल अनन्त कालप्रमाण असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥ ४९ ॥ मोहकर्मकी छवीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक मनुष्य, देव अथवा मारकी अनादि. मिथ्यादृष्टि जीव तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ। वहांपर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिबर्तनोंको परिवर्तित करके अन्य गतिको चला गया। शंका- ' असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन ' इस प्रकारसे वचनसे अनन्तताकी उपलब्धि होती है, इसलिये सूत्रमेसे 'अनन्त' पदका ग्रहण क्यों नहीं निकाल दिया जाय ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अनन्तपदके ग्रहण किए बिना पुद्गलपरिवर्तनके अनन्तताकी उपलब्धिका और कोई उपाय नहीं है। शंका- तिर्यंच मिथ्यादृष्टिके बताये गये उक्त पुद्गलपरिवर्तन, 'आवलीके असंख्या. तवें भागमात्र ही होते हैं, ' यह कैसे जाना ? समाधान नहीं, क्योंकि, आचार्य-परम्परागत व्याख्यानसे उक्त बातका ज्ञान होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यचोंका काल ओषके समान है ॥५०॥ क्योंकि, नाना और एक जीवसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणाओंके साथ इन दोनोंकी कालप्ररूपणाओंमें कोई विशेषता नहीं है । १ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः। स. सि. १,.. २ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्याहाष्टसंयतासंयताना सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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