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१, ५, ५३.] कालाणुगमे तिरिक्खकालपरूवणं
[ ३६५ असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥५१॥
कुदो ? तीदाणागद-वट्टमाणकालेसु असंजदसम्मादिद्विविरहिदतिरिक्खगदीए अभावा।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ५२ ॥
तं जधा--एक्को मिच्छादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा संजदासजदो वा परिणामपच्चएण असंजदसम्मादिट्ठी जादो। सबलहुमंतोमुहुत्तमच्छिय विसोहीए दुक्कओ संजमासंजमं गदो, संकिलेसण ढुक्कओ मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा गदो । एवं जहण्णकालपरूवणा गदा।
उकस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि ॥ ५३॥
तं जधा- एक्को मणुस्सो बद्धतिरिक्खाउओ सम्मत्तं घेतूण दंसणमोहणीयं खविय देवुत्तरकुरुतिरिक्खेसु उववण्णो। तिणि पलिदोवमाणि तत्थ सम्मत्तेण सह अच्छिय मदो
असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंच जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥५१॥
__ क्योंकि, अतीत, अनागत और वर्तमान, इन तीनों ही कालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित तिर्यंचगति नहीं पाई जाती है।
एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि तियंचोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥५२॥
वह इस प्रकार है- एक मिथ्यादृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा संयतासंयत तिथंच जीव परिणामों के निमित्तसे असंयतसम्यग्दृष्टि हुआ। वहां सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रह करके विशुद्धिसे बढ़ता हुआ संयमासंयमको प्राप्त हो गया। पुनः संक्लेशसे बढ़ता हुआ मिथ्यात्वको अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार जघन्य काल की प्ररूपणा हुई।
असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचका उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है ॥ ५३॥
वह इस प्रकार है- बद्धतिर्यगायुष्क एक मनुष्य सम्यक्त्वको ग्रहण करके, और दर्शनमोहनीयका क्षय कर, देवकुरु या उत्तरकुरुके तिर्यचों में उत्पन्न हुआ। यहां पर तीन पल्योपम कालप्रमाण सम्यक्त्वके साथ रह कर मरा, और देव हो गया। इस प्रकारसे
१ असंयतसम्यग्दृष्टेनानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १,८. १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण त्रीणि पक्ष्योपमाणि । स. सि. १, ८.
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