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________________ १, ४, ६६. फोसणाणुगमे थावरकाइयफोसणपरूवर्ण [२४७ सायावादेण पुरविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय वाउकाइयबादरपुढविकाइथ -बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-वादरवाउकाइयबादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर-तस्सेवअपज्जत्त-सुहुमपुढविकाइय-सुहुमआउकाइय-सुहुमतेउकाइय-सुहमवाउकाइय तस्सेवपज्जत्त--अपज्जत्तएहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, सबलोगो ॥६६॥ पुढविकाइय-आउकाइय तेसिं चेत्र सञ्चसुहुमेहि सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसायमारणंतिय-उववादपरिणदेहि तिसु वि कालेसु सव्वलोगो पोसिदो। बादरपुढविकाइयबादरआउकाइय-तेसिं चेव अपज्जत बादरतेउकाइय-तस्सेव अपज्जत्तवणफदिकाइयपत्तेयसरीरबादरणिगादपदिट्ठिद-तेसिं चेव अपज्जत्तएहि य सत्थाण-वेदण-कसायपरिणदेहि तीदाणागदवट्टमाणकालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगादो संखेज्जगुणो, माणुसखेतादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। तिरियलोगादो संखेज्जगुणतं कधं णबदे ? ___ कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक जीव तथा बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अनिकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर जीव तथा इन्हीं पांचोंके बादर कायसम्बन्धी अपर्याप्त जीव; सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और इन्हीं सूक्ष्म जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? सर्वलोक स्पर्म किया है ।। ६६ ॥ ___ स्वस्थान स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत पृथिवीकायिक और जलकायिक जीव और उन्हीके सर्व सूक्ष्मकायिक जीवोंने तीनों ही कालोंमें सर्वलोक स्पर्श किया है। स्वस्थान, वेदना और कषायपदपरिगत बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंने, बादर अग्निकायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंने, वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर बादानिमोदप्रतिष्ठित और उन्हींके अपर्याप्त जीवोंने अतीत, अनागत और वर्तमान, इन तीनों कालोंमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा तथा मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। शंका - उक्त जीवोंने तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, यह कैसे जाना ? १ कायानुवादेन स्थावरकायिकैः सर्वलोकः स्पृष्टः । स, सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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