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________________ ४७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ३००. - एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३०० ॥ तं जधा- एको मिच्छादिट्ठी वड्डमाणपम्मलेस्सिओ सगद्धाए खएण सुक्कलेस्सिओ जादो । सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पम्मलेस्सं गदो, अण्णलेस्सागमणे संभवाभावा । उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३०१ ॥ तं जधा-एक्को दवलिंगी दव्यसंजममाहप्पेण उपरिमगवजेसु आउअं बंधिय पम्मलेस्साए अच्छिदस्स तिस्से अद्धाखएण सुक्कलस्सा आगदा । तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय कालं करिय उवरिमगेवेज्जेसु उववञ्जिय सगहिदि गमिय चुदो तक्खणे चेव णट्ठलेस्सिओ जादो। एवं पढमिल्लंतोमुहुत्तेण सादिरेगएक्कत्तीस सागरोवममेत्तो त्ति मिच्छत्तसहिदसुक्कलस्सुक्कस्सकालो होदि ।। सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥३०२ ॥ सुक्कलस्सेत्ति अणुवट्टदे। कुदो ओघत्तं ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगो एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३०० ॥ जैसे- वर्धमान पद्मलेश्यावाला कोई मिथ्यादृष्टि जीव अपनी लेश्याका काल समाप्त हो जानेसे शुक्ललेश्यावाला हो गया। वह उसमें सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके पद्मलेश्याको प्राप्त हुआ, क्योंकि, उसका पद्मलेश्याके सिवाय अन्य किसी लेश्यामें जाना संभव ही नहीं है। __ शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागरोपम है ॥ ३०१॥ जैसे-एक द्रव्यलिंगी साधु द्रव्यसंयमके माहात्म्यसे उपरिम अवेयकों में आयुको बांधकर पनलेश्यामें विद्यमान था। उसके उस लेश्याके कालक्षयसे शुक्ललेश्या आगई। उसमें अन्तर्मुहूर्त काल रह कर, कालको करके, उपरिम प्रैवेयकोंमें उत्पन्न होकर, अपनी स्थितिको बिताकर च्युत हुआ और उसी क्षणमें ही नष्टलेश्यावाला होगया। इस प्रकार प्रथम अन्तमुहूर्त के साथ साधिक इकतीस सागरोपमप्रमाण मिथ्यात्वसहित शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट काल होता है। शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३०२॥ यहां पर 'शुक्ललेश्या' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। शंका-सूत्रोक्त ओघपना कैसे संभव है? समाधान-नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय, और उत्कृष्ट काल १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १,८. ३ सासादनसम्यग्दृष्टधादिसयोगकेवल्यन्तानxx सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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