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________________ ५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ४. जगपदरं होइ'। णवरि दोसु वि अंतेसु साट्ठिसहस्सजोयणुस्सेहपरिहाणिखेत्तेण ऊणं एदमजोएदूण सद्विसहस्सवाहल्लं जगपदरमिदि संकप्पिय तच्छेदूण पुध द्ववेदव्वं ६०००० । पुणो एगरज्जुस्सेधेण सत्तरज्जुआयामेण सहिजोयणसहस्सबाहल्लेण दोसु वि पासेसु ट्ठिदवादखेत्तं बुद्धीए पुध करिय जगपदरपमाणेणाबद्धे वीससहस्साहियजोयणलक्खस्स सत्तभागचाहल्लं जगपदरं होदि १२०००० ।' तं पुबिल्लखेत्तस्सुवरि दुविदे चालीसजोयणसहस्सा प्रमाण है । उस सब बाहल्यको एकत्रित करनेपर साठ हजार योजन बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है। इतनी विशेषता है कि पूर्व और पश्चिमके दोनों ही पार्श्वभागों में साठ हजार योजन ऊंचाईतक हानिरूप क्षेत्रकी अपेक्षा उपर्युक्त क्षेत्र हानिरूप है। फिर भी इस ऊन क्षेत्रकी गणना न करके और उसे साठ हजार योजन मोटा जगप्रतरप्रमाण संकल्प कर उसे छिन्न करके पृथक् स्थापित कर देना चाहिये। उदाहरण-अधोलोकका तलभाग ७ राजु लम्बा और ७ राजु चौड़ा है, अतएव उसका क्षेत्रफल जगप्रतरप्रमाण होगा। तलभागमें प्रत्येक वातवलय २०००० हजार योजन मोटा है, इसलिये तीनों वातवलयोंकी मोटाई ६०००० योजन होती है। इसे जगप्रतरसे गुणित कर देनेपर साठ हजार योजनोंके जितने प्रदेश होंगे उतने जगप्रतर लब्ध आते हैं। यही तलभागके वातरुद्ध क्षेत्रका घनफल है। पुनः एक राजु उत्सेधरूप, सात राजु आयामरूप और साठ हजार योजन बाहल्य. रूपसे उत्तर और दक्षिणसम्बन्धी दोनों ही पार्श्वभागों में स्थित वातक्षेत्रको बुद्धिसे पृथक् करके उसे जगप्रतरप्रमाणसे करनेपर एक लाख वीस हजार योजनोंके सातवें भाग बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है। उदाहरण-अधोलोकके तलभागसे ऊपर एक राजुप्रमाण बातषलयसे रुके हुए क्षेत्रका घनफल-उत्तर और दक्षिणमें पूर्वसे पश्चिमतक प्रत्येक दिशामें जगश्रेणीप्रमाण लंबा; १ राजु ऊंचा; तीनों वातवलयाका बाहल्य ६०००० योजन; दोनों दिशाओंके वायुरुद्ध क्षेत्र १२०००० योजनोंके प्रमाणमें सातका भाग देनेपर १७१४२६ योजन लब्ध आते हैं, और ऊंचाई में राजुके स्थानमें जगश्रेणीका प्रमाण हो जाता है। अतएव १७१४२६ योजनोंके जितने प्रदेश हो उतने जगप्रतरप्रमाण उत्तर और दक्षिण में अधोलोकके तलभागसे एक राजु ऊंचे क्षेत्रतक वातवलयरुद्ध क्षेत्रका घनफल होता है। १ लोयतले वादतये बाहललं सहिजोयणसहस्सं । सेढि भुजकोहिगुणिदं किंचूर्ण वाउखेत्त फलं ॥ त्रि. सा. १२७. २ किंचूणरज्जुवासो जगसे दीदीहरं हवे वेहो । जोयण सष्ठिसहस्सं सत्तमखिदिपुष्व अवरे य ॥ जगपदरसत्तभागं सद्विसहस्सेहि जोयणेहि गुणं । विगगुणिदमुभयपासे वादफलं पुब्ध अवरे य ॥ त्रि. सा. १२८, १२९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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