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१, ५, ३३३.] कालाणुगमे सण्णिकालपरूवणं
[४८५ ओघम्हि उत्तसासणादीणं सम्मत्ताणुवादम्हि उत्तसासणादितिण्हं गुणट्ठाणाणं च भेदाभावा ।
एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता। सणियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा॥ ३३०॥
सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३३१ ॥ एवं पि सुत्तं सुगमं चेय, बहुसो परूविदत्तादो। उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥ ३३२ ॥
तं जधा- एगो असण्णी सण्णीसु उववण्णो सागरोवमसदपुधत्तं तत्थेव भमिय पुणो असण्णित्तं गदो।
सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥३३३ ॥
ओघमें कहे गये सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तीन गुणस्थानोंकी कालप्ररूपणाका और सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादमें कहे गये सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तीन गुणस्थानोंकी काल. प्ररूपणाका परस्परमें कोई भेद नहीं है।
इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई। संज्ञामार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥३३०॥
यह सूत्र सुगम है। एक जीवकी अपेक्षा संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥३३१॥ यह सूत्र भी सुगम ही है, क्योंकि, पहले बहुत वार प्ररूपण किया जा चुका है।
एक जीवकी अपेक्षा संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥ ३३२॥
जैसे- कोई एक असंही जीव संशियों में उत्पन्न हुआ और सागरोपमशतपृथक्त्वके भन्त तक वह संशियों में ही भ्रमण करके पुन: असंशित्वको प्राप्त हुआ। .
सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक संझियोंकी कालप्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३३३ ॥
१ संज्ञानुवादेन संशिषु मिथ्यादृष्टयाच निवृत्तिबादरान्तानां पुंवेदवत् । स. सि. १,.. . १शेषाणां सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८.
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