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४८६) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,५, ३३४. सण्णिसासणादीणं ओघसासणादीणं च सणितं पडि भेदाभावा ।
असण्णी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥३३४॥
सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ३३५॥
तं जहा- एगो सणी असणीसु उप्पज्जिय खुद्दाभवग्गहणमेत्तकालमच्छिय सण्णित्तं गदो।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्ट ॥ ३३६ ॥
तं जधा- एगो सण्णी मिच्छादिट्ठी असण्णी होदूण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टी तत्थ परियट्टिण सण्णित्तं गदो।
एवं सण्णिमग्गणा समत्ता । आहाराणुवादेण आहारएतु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा ॥ ३३७ ॥
क्योंकि, संशी सासादनादिकोंका और ओघ सासादनादिकोंका संशित्वके प्रति कोई भेद नहीं है।
असंज्ञी जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३३४ ॥ ___यह सूत्र सुगम है।
एक जीवकी अपेक्षा असंज्ञी जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥३३५॥
जैसे-कोई एक संशी जीव असंशियों में उत्पन्न होकर क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल रह करके संक्षित्वको प्राप्त हो गया।
एक जीवकी अपेक्षा असंज्ञियोंका उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ ३३६ ॥
जैसे- कोई एक संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव असंही होकर, आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तनातक उन्हीं में परिभ्रमण करके संज्ञित्वको प्राप्त हुआ।
इस प्रकार संज्ञीमार्गणा समाप्त हुई। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३३७॥
१ असलिना मिष्यादृष्टेन नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, .. २ एकजीवं प्रति जघन्येन शुदभवग्रहणम् | स. सि. १,८, ३ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । स. सि. १,८. ४ आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १,८.
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