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________________ छक्खंडागमे जीवद्वाणं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३२४ ॥ पमत्तापमत्ताणं ताव उच्चदे - सत्तद्रु जणा बहुआ वा दंसणमोहणीयउवसामगा चारित्त मोहणीयउवसामगा वा पमत्तापमत्तगुणे पडिवण्णा । तेसु अंतोमुहुत्तमच्छिय अण्णगुणं गदा । तहि चेव समए अण्णे उवसमसम्मादिट्ठिणो पमत्तापमत्तगुणे पडिवण्णा । एवमेत्थ संखेज्जस लागा लब्धंति । एदाहि पमत्तापमत्तद्धं गुणिदे वि अंतोमुहुत्तं चेव होदि । कुदो ? अंत मुहुत्तमिदि सुत्ते उद्दिट्ठत्तादो। एवं चैव चदुण्हमुवसामगाणं वि वत्तं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं ॥ ३२५ ॥ उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ३२६ ॥ दाणि दो वित्ताणि सुगमाणि, णाणाजीवजहण्णुक्कस्सकालपरूवणाए परू ४८४ ] विदत्तादो | सास सम्मादिट्ठी ओघं ॥ ३२७ ॥ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ३२८ ॥ मिच्छादिट्टी ओघं ॥ ३२९ ॥ उक्त गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३२४ ॥ उनमें से पहले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका काल कहते हैं- सात आठ जीव अथवा बहुतसे जीव, चाहे वे दर्शनमोहनीयकर्मके उपशामक हों, अथवा चाहे चारित्रमोहनीयकर्मके उपशमन करनेवाले हों, प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त हुए | उन दोनों गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त काल रद्द करके अन्य गुणस्थानको प्राप्त हुए। उसी ही समय में अन्य भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुए । इस प्रकार से यहां पर संख्यात शलाकाएं प्राप्त होती हैं । इन शलाकाओं से प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतके कालको गुणा करने पर भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है, क्योंकि, सूत्र में ' अन्तर्मुहूर्त ' ऐसा पद कहा गया है। इसी प्रकार से चारों उपशामकोंका भी काल कहना चाहिए । Jain Education International [ १, ५, ३२४. एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ ३२५ ॥ उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है || ३२६ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं, क्योंकि, इनका अर्थ नाना जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा में प्ररूपण किया जा चुका है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३२७ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३२८ ॥ मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ ३२९ ॥ १ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्टि - मिध्यादृष्टीनी सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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