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________________ १, ५, २४०.] कालाणुगमे णयुसयवेदिकालपरवणं उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥ २३८॥ . एदस्सुदाहरणं-एको स्थी-णQसयवेदेसु बहुवारं परियट्टिदजीवो पुरिसदेसु उन्वण्णो । पुरिसवेदो होदूण सागरोवमसदपुधत्तं परिभमिय अणप्पिदवेदं' गदो। तिसदमादि करिय जाव णवसदं ति एदिस्से संखाए सदपुधत्तमिदि सण्णा । सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अणियट्टि ति ओघं ॥२३९॥ कुदो ? एदेसि उत्तगुणट्ठाणाणं णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सकालेहि ओपादो भेदाभावा । णवरि संजदासंजदाणमित्थिवेदभंगो। __णवंसयवेदेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २४० ॥ कुदो ? सव्वद्धासु एदेसिं विरहाभावा ।। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपृथक्त्व है ॥ २३८ ॥ इसका उदाहरण- स्त्री और नपुंसकवेदी जीवोंमें बहुत वार परिभ्रमण किया हुमा कोई एक जीव पुरुषवेदियों में उत्पन्न हुआ। पुरुषवेदी होकर सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक परिभ्रमण करके अविवक्षित वेदको चला गया। तीन सौ को आदि करके नौ सौ तकाकी संख्याकी 'शतपृथक्त्व' यह संशा है। . सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणसानवी पुरुषवेदी जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २३९ ॥ . क्योंकि, इन सूत्रोक्त गुणस्थानोंका नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालके साथ ओघसे कोई भेद नहीं है। विशेष बात यह है कि पुरुषवेदी संयतासंयतोंका काल स्त्रीवेदी संयतासंयतोंके समान है। नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल होते हैं ॥ २४०॥ क्योंकि, सभी कालोंमें इन जीवोंके विरहका अभाव है। १ उत्कण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १, ८. २ अ-आ-क प्रतिषु · अप्पिदवेदं' इति पाठः म प्रतौ तु स्वीकृतपाठः। ३ सासादनसम्यग्दृष्टयाएनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. ४ नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स.सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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