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________________ ४४० छक्खंडागमे जीषट्ठाणं [१, ५, २३६. मकडादिसु उववज्जिय वे मासे गम्भे अच्छिदूण णिप्फिडिय मुहुर्तपुधत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं घेत्तूण वेमासमुहुत्त पुत्तूणपुव्बकोडिं संजमासंजममणुपालिय मदो देवो जादो ति । ओघम्हि पुण अंतोमुहुत्तूणपुव्वकोडिसंजदासंजदउक्कस्सकालो सण्णिसम्मुच्छिमपज्जत्तमच्छ-कच्छव-मंडूकादिसु लद्धो, एत्थ सो ण लब्भदि, सम्मुच्छिमेसु इत्थिवेदामावा। - पुरिसवेदएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥२३६ ॥ तिसु वि अद्धासु पुरिसवेदमिच्छादिट्ठीणं विरहासंभवा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमहत्तं ॥ २३७ ॥ कुदो ? असंजदसम्मादिहिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स संजदासंजदस्स पमत्तसंजदस्स वा दिट्ठमग्गस्स मिच्छादिट्ठी होण सवजहण्णमच्छिय गुणंतरं पडिवण्णस्स अंतोमुहुत्तुवलंभा । प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव स्त्रीवेदी कुक्कुट, मर्कट आदिमें उत्पन्न होकर, और दो मास गर्भ में रह, निकल करके मुहूर्तपृथक्त्वके ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयमको युगपत् ग्रहण करके दो मास और मुहूर्तपृथक्त्वसे कम पूर्वकोटीवर्षप्रमाण संयमासंयमको परिपालन करके मरा और देव हो गया। किन्तु ओघकालप्ररूपणामें जो अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटी वर्ष संयतासंयतका उत्कृष्ट काल कहा है वह संशी सम्मूर्च्छिम पर्याप्त मच्छ, कच्छा मंडूकादिकोंमें ही पाया जाता है, वह यहां पर नहीं पाया जाता है। क्योंकि, सम्मूछिम जीवों में स्त्रीवेदका अभाव है। पुरुषवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २३६ ॥ .. क्योंकि, तीनों ही कालोंमें पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंका विरह असंभव है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है॥ २३७ ॥ क्योंकि, देखा है मार्गको जिसने, ऐसे असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयतके, मिथ्यादृष्टि होकर और सर्वजघन्य काल रह करके अन्य गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। १ अ प्रतौ ‘णिफिलिय मुहुत्तं'; आ प्रतौ । णिप्फिडियमंतोमुहुत्तं '; क प्रतौ । णिफिडिलिय मुहुत्तं'; म प्रतौ 'णिप्फलिय मुहुत्त-' इति पाठः। २ प्रतिषु 'दुगदं ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'कच्छमदि-' इति पाठः। ४ पुर्वेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवा क्षपाठःकालः । स. सि. १,८. ५ एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स, सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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