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________________ १, ४, १८५. ] फौसणानुगमे अणादारिफोसणपरूवणं [ ३०९ एदस्त सुत्तस्स परूवणा अदीद- वट्टमाणेहि ओघतुल्ला । णवरि सजोगकेवली पदर- लोग पूरणपदा णत्थि । आहारएस कम्मइयकायजोगिभंगो ॥ १८४ ॥ कुदो ? कम्मइयकायजोगीसु सव्त्रेसु अणाहारिनुवलंभादो । अजोगिअणाहारिपरूवणट्ठमुत्तरमुत्तं भणदि वरिविसेसा, अजेोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १८५ ॥ एदं सुतं सुगमं । ( एवं आहारमग्गणा समत्ता ) एवं फोसणाणुगमो त्ति सम्मत्तमणिओगद्दारं । इस सूत्र की प्ररूपणा अतीत और वर्तमान इन दोनों कालों की अपेक्षा ओघप्ररूपणा के समान है । विशेष बात यह है कि सयोगिकेवलीके प्रतर और लोकपूरणसमुद्वास, ये दो पद नहीं होते हैं । अनाहारक जीवोंमें संभवित गुणस्थानवर्ती जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र कार्मणकाययोगियोंके क्षेत्र के समान है ।। १८४ ॥ इसका कारण यह है कि सभी कार्मणकाययोगियोंके अनाहारकपना पाया जाता है । अनाहारी अयोगिजिनके स्पर्शनक्षेत्र के प्ररूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैंविशेष बात यह है कि अयोगिकेवलियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। १८५ ॥ Jain Education International यह सूत्र सुगम है | ( इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई । ) इस प्रकार स्पर्शनानुगम नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । १ अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । सासादनसम्यग्दृष्टि मिर्लोकस्यासंख्येयभागः एकादश चतुर्दशभागा वा देशोनाः । सयोगिकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः सर्वलोको वा । स. सि. १, ८. २ अयोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १, ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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