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________________ ३०८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं. १, ४, १८१. आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १८१ ॥ - उववादस्स रज्जुआयामो आहारणिरुद्ध ण लब्भदि, तेण सबलोगो पोसणाभावा णोत्तं जुज्जदे ? ण, सरीरगहिदपढमसमए वट्टमाणजीवेहि आऊरिदसव्वलोगुवलंभादो । सेसं सुगमं । सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदा ओघं ॥ १८२ ॥ एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा । तीदकालपरूवणं भण्णमाणे पोसणोघम्हि चदुण्हं गुणट्ठाणाणं जहा उत्तं तधा वत्तव्यं । णवरि सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि उववादपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पासिदो। पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १८३ ॥ आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १८१॥ शंका-आहारमार्गणाकी अपेक्षा कथन करनेपर उपपादपदका राजुप्रमाण आयाम नहीं पाया जाता है, इसलिए सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रके स्पर्शनका अभाव होनेसे ओघपना नहीं बनता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयमें वर्तमान जीघोंसे व्यात सर्वलोकके पाये जानेसे ओघपना बन जाता है । शेष अर्थ सुगम ही है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती आहारक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १८२ ॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रके समान है। अतीतकालकी प्ररूपणा कहनेपर स्पर्शनके ओघमें जैसा कि इन चारों गुणस्थानोंका स्पर्शनक्षेत्र कहा है, उसी प्रकारसे कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि उपपादपरिणत सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । ... आहारक जीवोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। १८३ ॥ १ आहारानुवादेन आहारकाणां मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तान सामान्योक्तम् । स.सि. १,८. २ सयोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः | स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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