SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०१) छैक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १६७. सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १६७॥ एदं सुत्वं सुगम, ओघम्हि तिणि वि काले अस्सिदूण परूविदत्तादो । खड्यसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठी ओघं ॥ १६८ ॥ एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा। सत्थाणपरिणदेहि खइयअसंजदसम्मादिट्ठीहि तिहं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोयस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; विहार-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतियपरिणदेहि अट्ट चोद्दसभागा फोसिदा । उववादपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो, तिरियलोगस्स संखेजदिमागो। तं कधं लब्भदे ? बद्धाउअमणुसखइयसम्माहिदीसु तिरिक्खेसुप्पज्जमाणेसु असंखेजदीवेसु अच्छिय सोधम्मीसाणकप्पेसु उप्पज्जमाणखइयसम्मादिद्विछत्तखेत्तं सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १६७ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, तीनों ही कालोंका आश्रय करके ओघमें प्ररूपण किया जा चुका है। ___ क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १६८॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रके समान है। स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत असंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्याता भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारबत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने आठ बटे चौदह (1) भाग स्पर्श किये हैं। उपपादपदपरिणत असंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंने सामान्य. लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। शंका-उपपादगत असंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कैसे पाया जाता है ? समाधान-तिर्यों में उत्पन्न होनेवाले बद्धायुष्क क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यों के भसंख्यात द्वीपोंमें रह करके पुनः मरणकर सौधर्म और ईशानकल्पोंमें उत्पन्न होनेवाले १ सम्यक्स्वानुवादेन क्षायिकसम्यष्टीमामसंयतसम्यष्टयाघयोगकेवल्यन्तामा सामान्योक्तम् । किन्तु संयता. संबसाना लोकस्यासंख्येषमागः । स. सि. १. ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy