SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ३. संखेज्जदिभागे तिरियलोगो होदि त्ति के वि आइरिया भणंति, तं ॥ घडदे, पुव्वन्भुवगमेण सह विरोधा । को सो पुव्वब्भुवगमो ? चत्तारि-तिण्णि-रज्जुबाहल्लजगपदरपमाणा अध-उड्डलोगा, सत्तरज्जुबाहल्लजगपदरपमाणो सव्वलोगो त्ति । माणुसलोगपमाणं पणदालीसजायणसदसहस्सविक्खंभं जोयणसदसहस्सुस्सेधं । पुणो विक्खंभुस्सेधे अंगुलाणि करिय व्यासं षोडशगुणितं षोडशसहितं त्रिरूपरूपैर्भक्तम् । व्यासं त्रिगुणितसहितं सूक्ष्मादपि तद्भवेत्सूक्ष्मम् ॥ १५ ॥ ................................... अधोलोक, इन तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें तिर्यग्लोक है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परंतु उनका इसप्रकारका कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, इस कथनका पूर्व में स्वीकार किये गये कथनके साथ विरोध आता है। शंका- वह पहले स्वीकार किया गया कथन कौनसा है ? समाधान-चार राजु मोटा और जगप्रतरप्रमाण लंबा चौड़ा अधोलोक है। तीन राजु मोटा और जगप्रतरप्रमाण लंबा चौड़ा ऊर्ध्वलोक है । सात राजु मोटा और जगप्रतरप्रमाण लम्बा चौड़ा सर्वलोक है, यही वह पूर्व स्वीकार किया गया कथन है।। पैतालीस लाख योजन विष्कभरूप और एक लाख योजन ऊंचा मानुषलोक है । पुनः पूर्वोक्त गुणकाररूप क्षेत्रसंबन्धी विष्कम्भ और उत्सेधके अंगुल करके व्यासको सोलहसे गुणा करे, पुनःसोलह जोड़े, पुनः तीन एक और एक अर्थात् एकसौ तेरहका भाग देवे और व्यासका तिगुना जोड़ देवे, तो सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म परिधिका प्रमाण आ जाता है॥ १४ ॥ विशेषार्थ--यहांपर मंडलाकार क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण लानेकी प्रक्रिया बतलाई गई है। स्थूल मानसे तो परिधिका विस्तार व्याससे तिगुणा ले लिया जाता है, यथा-वासो तिगुणो परिही (त्रि. सा. १७) इससे भी सूक्ष्मप्रमाण दशका वर्गमूल बतलाया गया है। यथा-विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होदि (त्रि. सा ९६)। किन्तु प्रस्तुत गाथामें इस सूक्ष्मप्रमाणसे भी सूक्ष्मतर प्रमाण निकालने की प्रक्रिया बतलाई गई है, जो इसप्रकार हैउदाहरण-१ राजु व्यासके वृत्तक्षेत्रकी परिधिका प्रमाण निम्न प्रकारसे होगा १४ १६ + १६.१४३ = ३७१ : ११३ १ ११ उसीप्रकार ७ राजु वृत्तक्षेत्रकी परिधिका प्रमाण इसप्रकार होगा ७४.१६ १६+७४३- २५०१ = २२१५ राजु । ११३ ३२ १ तसणालीबहुमज्झे चित्ताय खिदीय उवरिमे भागे। अइवट्टो मणुवजगी जोयणपणदाललक्खविक्खमो। ति.प. ४, ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy