SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ३, ३.] खेत्ताणुगमे सासणादिखेत्तपरूवणं [११ णवरि वेदण-कसायखेत्ताणि णवहि गुणेयवाणि, सरीरतिगुणविक्खंभादो । विहारवेउब्बियपदाणं संखेज्जाणि घणंगुलाणि । अधवा वेदणादिणा सरीरतिगुणसमुग्धादं करेंता सुटु थोवा त्ति मज्झिमगुणगारो णवद्धरूवपमाणो होदि त्ति । एदेहि लोगे भागे हिदे लद्धं विरलेदूण एकेकस्स रूवस्स लोगं समखंडं कादूण दिण्णे एगभागो एदेहि रुद्धखेत्तं होदि । उड्डलोगपमाणं तिण्णि रज्जुबाहल्लं जगपदरं । एत्थ वि ओवट्टणा पुत्वं व कादव्वा । अधोलोगपमाणं चत्तारि रज्जुबाहल्लं जगपदर । तधा' चेव ओवट्टणा । तिरियलोगपमाणं जोयणलक्ख-सत्तभागबाहल्लं जगपदरं । एत्थ वि ओवट्टणा पुव्वं व कायव्वा । एत्थ तिरियलोगपमाणे आणिज्जमाणे विक्खंभायामेहि एगरज्जुपमाणमेव तिण्हं लोगाणम इसके प्रमाणांगुल हुए ५० २४ १६८ ९४८३२६४ ९२६१ ५०० ५००००००००००- १९५३१२५ यह राशि प्रमाणघनांगुलके संख्यातवें भाग हुई। इसे सौधर्म ईशान स्वर्गोंकी सासादनादि तीन गुणस्थानवर्ती राशियोंसे गुणा करनेपर तीनों गुणस्थानोंके स्वस्थानादि पदोंके क्षेत्रोंका प्रमाण आता है, जो तीनों लोकोंके असंख्यातवें भाग तथा अढ़ाई द्वीपसे भसंख्यात. गुणा होता है। इतनी विशेषता है कि वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातका क्षेत्र लानेके लिये मूल अवगाहनाको नौसे गुणित करना चाहिये, क्योंकि, वेदना और कषाय समुद्धातमें उत्कृष्टरूपसे शरीरसे तिगुना विस्तार पाया जाता है। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातका क्षेत्र लानेके लिये संख्यात घनांगुल गुणकार होते हैं। अथवा, वेदनासमुद्धात आदिके द्वारा शरीरसे तिगुने समुद्धातको करनेवाले जीव स्वल्प हैं, इसलिये मध्यम गुणकार नौके आधेरूप अर्थात् साढ़े चार होता है। इन उपर्युक्त गुणकारोंसे लोकके भाजित करनेपर जो लब्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति लोकको समान खंड करके देयरूपसे दे देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति जो एक भाग प्राप्त होता है उतना इन गुणकारोंसे रुद्ध क्षेत्र होता है। तीन राजुबाहल्यसे युक्त जगप्रतरप्रमाण ऊर्ध्वलोक है। यहांपर भी अप वर्तना पहलेके समान करना चाहिये । चार राजु मोटा और जगप्रतरप्रमाण लंबा चौड़ा अधोलोक है। यहांपर भी पूर्वके समान अपवर्तना करना चाहिये । एक लाख योजनमें सातका भाग देनेसे जितना लब्ध आवे उतना मोटा और जगप्रतरप्रमाण लंबा चौडा तिर्यग्लोक है। यहांपर भी अपवर्तना पहलेके समान करना चाहिये। यहां तिर्यग्लोकका प्रमाण लानेपर विष्कंभ और आयामसे एक राजुप्रमाण होते हुए भी घनलोक, ऊर्ध्वलोक और १ अ-क-प्रत्योः 'तत्था' आ प्रतौ 'तत्थ ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy