SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ३. अच्छंति । तं कथं ? एदेसिं तिगृहं गुणट्ठागाणं सोधम्मीसाणरासी पहाणो । तेसिमोगाहणा सत्त हत्थुस्सेहा, अंगुलगणणाए अट्ठसट्ठिसदुस्सेधंगुलपमाणा, एदस्स दस भागविक्खंभा । कुदो ? जदो देव मणुस्स- णेरइयाणमुस्सेधो दस- णव - अट्ठतालपमाणेण भणिदो । पुणो वासर्द्ध वग्गिय विगुणिय अट्ठसट्ठिमदुस्सेधंगुलेहि गुणिय घणीकद पंचसदंगुले हि ओहदे पाणघणं गुलस्स संखेज्जदिभागो आगच्छदि । एदेण तिन्हं गुणद्वाणाणं सत्थानादिरासिं ओघरासिस्स संखेजभागं संखेजदिभागं च गुणिदे तिन्हं गुणङ्काणाणं सत्थाणादिखेत्ताणि होंति । क्षेत्र में और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । शंका- -यह कैसे ? समाधान- इन तीन गुणस्थानों में सौधर्म और ऐशानकल्प संबन्धी देवराशि प्रधान है । उनकी अवगाहना सात हाथ उत्सेधरूप है, और अंगुलकी अपेक्षा गणना करनेपर एकसौ अड़सठ अंगुल प्रमाण है। इसके दशवे भागप्रमाण उस अवगाहनाका विष्कंभ है । शंका- यहांपर उत्सेधके दशवे भागप्रमाण विष्कंभ क्यों लिया है ? समाधान - चूंकि देव, मनुष्य और नारकियोंका उत्सेध दश, नौ और आठ तालके प्रमाणसे कहा गया है, इसलिये यहांपर उत्सेधके दशवें भागप्रमाण विष्कंभ लिया है । पुनः व्यासके आधेका वर्ग करके और उसे दूना करके अनन्तर एकसौ अडसठ उत्सेधके अंगुलों से गुणित करके पांचसौ अंगुलोंके घनसे अपवर्तित करनेपर प्रमाण घनांगुलका संख्यातवां भाग लब्ध आता है । इससे सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तीन गुणस्थानों की स्वस्थानस्त्रस्थान आदि राशियां जो कि सासादनसम्यग्दृष्टि आदि ओघराशिके उत्तरोत्तर संख्यातवें संख्यातवें भागप्रमाण हैं, उन्हें गुणित करनेपर तीन गुणस्थानों की स्वस्थानस्वस्थान आदि राशियोंके क्षेत्र हो जाते हैं । विशेषार्थ - यहां स्वस्थानादि पदपरिणत सासादनादि तीन गुणस्थानवर्ती जीवों के अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहनेकी उपपत्ति बतलाई गई है । प्रकृतमें सौधर्म- पेशान देवराशि प्रधान है । इन स्वर्गौके एक देवकी अवगाहना ७ हाथ = १६८ उत्सेधअंगुल ऊंची तथा इसके दशमांश विष्कम्भरूप होती है। तदनुसार एक देवकी अवगाहनाका घन फल इसप्रकार आता है उत्सेध १६८ अंगुल, विष्कम्भ अंगुल । (+)' १६८ १० Jain Education International × २ x १६८ एक देवकी अवगाहनाके उत्सेध घनांगुल । १ प्रतिषु पहाणा' इति पाठः । ३ आ प्रतौ ' संखेज्जमागमसंखेज्जदिभागं च ' इति पाठः । २ प्रतिषु वासव्वं ' इति पाठः । " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy