SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, ३८. rate गाहाए परिधिनाणीय विक्खभच उन्भागेग गुणिय संखेज्जंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो मारणंतियखेत्तं होदि । अड्डाहज्जादो असंखेज्जगुणं । उववाद देहि असंजद सम्मादिट्ठीहि तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेदिमागी । तं जहा - जदि वि अट्ठरज्जुखेत्तं रज्जुविक्खंभमददिकाले चउत्रिहा देवा आऊरिय विदा असंजदसम्मादिट्टिणो मणुसेसु उप्पज्जंति, तो वि तिरियलोयस्स संखेजदिभागो पोसणं, देवसासणाणं व तत्थतण असंजदसम्मादिट्ठीणं मणुसे सुप्पजमाणाणमागमणियमोवलं भादो । एसो अत्थो अण्णत्थ वि वत्तव्यो । अड्डा इजादो असंखेजगुणो पोसिदो | संजदासंजदाणं वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो । सत्थाणसत्थाणेण अदीदकाले संजदासंजदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागा, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो पोसिदो । विहारवदि सत्याण- वेदण-कसाय वे उच्चिय समुग्वादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज दिभागो, इस गाथा के अनुसार परिधिको निकालकर और विष्कम्भके चतुर्भागले गुणाकर पुनः संख्यात अंगुलोंसे गुणा करने पर तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागप्रमाण मारणान्तिकक्षेत्र हो जाता है । वह क्षेत्र अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा होता है । उदाहरण - स्वयंप्रभ पर्वत से उपरिम भाग अर्थात् भीतरी क्षेत्रका विष्कम्भ - ५ ३ ३ १६१६ X + ८ १ १ ९ ३ ३५७९ x ११३ ३२ २९०५६ १ - B राजु प्रसर, यह मारणान्तिकसमुद्धातगत असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका क्षेत्र है जो राजुप्रतर के अमांशसे कुछ अधिक होनेके कारण तिर्यग्लोक अर्थात् ७ x १ राजुका संख्यातवां भाग तथा पैतालीस लाख योजन विष्कम्भ वाले अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा बड़ा है । Jain Education International घ उपपादपदगत असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका अनंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । वह इसप्रकार है - यद्यपि अतीतकाल में आठ राजु आयत और एक राजु विस्तृत क्षेत्रको व्याप्त करके स्थित चारों प्रकारके असंयतसम्यग्दृष्टि देव, मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं तो भी वह स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग ही होता है, क्योंकि, सासादन सम्यग्दृष्टि देवोंके समान वहांके मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले असंयतसम्यग्दृष्टियों के आगमनका नियम पाया जाता है । यह अर्थ अन्यत्र भी कहना चाहिए। उन्हीं जीवोंने अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । संयतासंयत मनुष्योंकी वर्तमानकालिक स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्र के समान है । स्वस्थानस्वस्थानपदकी अपेक्षा संयतासंयत मनुष्योंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातगत मनुष्य संयतासंयतोंने सामान्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy