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________________ १, ४, ४०. ] फोसणाणुगमे मणुस्फोसणपरूवणं | २२३ माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो, संखेजा भागा वा पोसिदा । मारणंतिय समुग्वादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । कारणं चिंतिय वत्तव्यं । पभत्तसंजद पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति ओघं । सजोगिकेवली हि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जा वा भागा, सव्वलोगो वा ॥ ३९ ॥ I । एदस्य सुत्तस्स अत्थो पुव्वं उत्तोति संपदि ण उच्चदे । एवं पज्जत्तमणुस - मणुसिणीसु । वरि मणुसिणीसु असंजदसम्मादिट्ठीणं उनवादी गत्थि । पमत्ते ते जाहारं णत्थि मणुसअपज्जतेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ४० ॥ सत्थाण- वेदण-कसायसमुग्वादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणूसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो पोसिदो । मारणंतिय उववाद्गदेहिं तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, दोलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो पोसिदो । लोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग अथवा संख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धातगत संयतासंयत मनुष्योंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण विचार कर कहना चाहिए । प्रमत्तसंगत गुणस्थान से लगाकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानव मनुष्योंका स्पर्शनक्षेत्र ओघप्ररूपणा के समान लोकका असंख्यातवां भाग है । सयोगिकेवली जिनोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ३९ ॥ इस सूत्र का अर्थ पहले कह आये हैं, इसलिए अब नहीं कहते हैं । इसी प्रकार से पर्याप्तमनुष्य और मनुष्यनियोंका स्पर्शनक्षेत्र जनाना चाहिए। विशेष बात यह है कि मनुष्यनियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपाद नहीं होता है, और प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस एवं आहारकसमुद्धात नहीं होते हैं । लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ४० ॥ स्वस्थान स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्वातगत लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्वात और उपपादपदगत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्य तथा तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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