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१, ४, १९.] फोसणाणुगमे णेरइयफोसणपरूवणं
[ १८९ पंचमाए चत्तारि चोद्दसभागा, छडीए पंच चोदसभागा सव्यत्य रइयाणमगम्मखेतेणूगा त्ति वत्तव्यं । एवं सासणसम्मादिट्ठीणं पि वत्तमं । णवरि उववादो णत्थि । किमद्रुमेदेसि. मदीदकाले एत्तियं खेत्तं होदि ? णिग्गमग-पवेसणं पडि सम्मादिट्ठीणं व णियमाभावा । भोगभूमिसंटाणसंठिदा असंखेज्जदीव समुदा णेरइएहि कथं पुसिज्जंति ? ण, तत्थ वि णेरड्याणं जिग्गभण-पस पछि विरोहाभावादो ।
___ सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिहीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १९ ॥
एदेसिं दोण्हं गुणट्ठागाणं वहमागकाले सत्याणादिपंचपदवियागं मारणंतियपदट्टियअसंजदसम्मादिट्ठीणं च परूवगाए खेतभंगो । एदेहि चेव अदीदकाले सत्थाणादिपंचपद
तीन बटे चौदह ( ३ ) भाग, पांचवीं पृथिवीके नारकियोंने चार वटे चौदह (१४ , भाग और छठी पृथिवीके नारकियोंने पांच बटे चौदह (१) भाग प्रमागक्षेत्र स्पर्श किया है। इन सभी पृथिचियों के नारकियोका देशोन क्षेत्र नारकियोंके अगम्यक्षेत्रसे कम कहना चाहिए। इसी प्रकार से उक्त पृथिवियोंके सर्व पदगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का भी स्पर्शनक्षेत्र कद्दना चाहिए । विशेष बात यह है कि उनके उपपादपद नहीं होता है।
शंका- उक्त नारकियोंका अतीतकाल में इतना (सूत्रोक्त) स्पर्शनक्षेत्र क्यों होता है ?
समाधान-इतना अधिक स्पर्शनक्षेत्र इसलिए होता है कि उक्त पृथिवियों में निर्गमन और प्रवेशन के प्रति अर्थात् जाने और आने की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीवोंके समान मिथ्या दृष्टि जीवोंका नियम नहीं है।
शंका-भोगभूमिकी रचनासे संस्थित असंख्यात द्वीप-समुद्र नारकियोंने कैसे स्पर्श किये हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, वहांपर भी नारकियोंका निर्गमन और प्रधेश होने में कोई विरोध नहीं है । अर्थात् मारणान्तिकसमुद्धातकी अपेक्षा नारकी जीवोंका उक्त क्षेत्रमें प्रदेश और निर्गमन बन जाता है।
द्वितीय पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीके सम्यग्मियादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्श किया है ॥ १९ ॥
सभ्यरिमथ्यादृष्टि और असं यतसम्यग्दृष्टि इन दोनों गुणस्थानोंके स्वस्थानस्वस्थान, विहारवरस्वस्थान, वेदना, कपाय और चैक्रियि कसमुद्धात, इन पांच पदोंपर स्थित नारकी जीवोंकी तथा मारणास्तिकपदस्थित असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी वर्तमानकालमें स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। द्वितीय पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके उक्त गुण
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१ सम्बङ्मियादृष्टयसं यतसम्यग्दृष्टिमिलोकस्यासंख्येयमागः । स. सि. १,..
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