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________________ १८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [ १, ४, १७. विदियादि जाव छट्ठीए पुढवीए णेरइएसु मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं,लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥१७॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतिय-उववादगदमिच्छादिट्ठीणं उववादविरहिदसेसपदहिदसासगसम्मादिट्ठीणं च परूवणार खेत्तभंगो, वट्टमाणकालपडिबद्धत्तादो। एग वे तिण्णि चत्तारि पंच चोदसभागा वा देसूणा ॥ १८ ॥ एत्थ 'वा' सद्दसूचिदत्थं ताव वत्तइस्सामो । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणबेदण-कसाय-वेउव्वियसमुग्घादगदेहि विदियादि पंचपुढविमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहि घदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो अदीदकाले फोसिदो । एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । मारणंतिय-उववादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले एगो चौद्दस : भागो विदियाए पुढवीए फोसिदो। तदियाए वे चोदसभागा, चउत्थीए तिण्णि चोदसभागा, द्वितीय पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १७॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्धात तथा उपपादपदको प्राप्त मिथ्यादृष्टि नारकी जीवोंकी तथा उपपादविरहित और शेष पदप्रतिष्ठित सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंकी स्पर्शनसम्बन्धी क्षेत्रप्ररूपणा वर्तमानकालसे प्रतिबद्ध होनेसे क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। उक्त जीवोंने अतिकालकी अपेक्षा चौदह भागोमेंसे कुछ कम एक, दो, तीन, चार और पांच भाग स्पर्श किये हैं ॥ १८॥ कि यहांपर पहले 'वा' शब्दसे सूचित अर्थको कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमद्धातगत द्वितीयादि पांच पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीतकालमें स्पर्श किया है। यहांपर कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए। दूसरी पृथिवीमें मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत मिथ्यादृष्टि नारकी जीवोंने अतीतकाल में एक बटे चौदह ( ट ) भाग स्पर्श किया है। तीसरी पृथिवीके नारकी जीवोंने दो बटे चौदह (२) भाग, चौथी पृथिवीके नारकियोंने १ द्विःयादिषु प्राक्सातम्या मिथ्याष्टिभिः सासादनसम्यग्दृष्टि मिलोकस्यासंख्येयभागः, एकः द्वौ त्रयः स्वारपंच चतुर्दशभागा ना देशोनाः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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