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________________ १, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिट्ठिकालपरूवणं [३३७ दवियलक्खणं'' इच्चारिसादो त्ति ? ण एस दोसो, जमक्कमेण तिलक्खणं तं दव्वं जं पुण कमेण उप्पाद-द्विदि-भंगिल्लं सो पज्जाओ त्ति जिणोवदेसादों । जदि एवं, तो पुढवि-आउतेउ-वाऊणं पि पज्जायत्तं पसज्जदि त्ति वुत्ते, होदु तेसिं पज्जायत्तं, इत्तादो । तेसु दव्वववहारो वि लोए दिस्सदीदि चे ण, तस्स दुणयणिबंधणणेगमणयणिबंधणत्तादो। सुद्धे दव्वट्ठियणए अवलंबिदे छच्चेय दव्वाणि असुद्धे दव्यट्ठियणए अवलंबिदे पुढविआदीणि अणेयाणि दव्वाणि होति त्ति वंजणपज्जायस्स दव्यत्तब्भुवगमादो। सुद्धे पज्जायणए अप्पिदे पज्जायस्स उप्पाद-विणासा दो चेव लक्खणाणि । असुद्धे अस्सिदे कमेण तिण्णि वि लक्खणाणि, उप्पण्णपज्जयस्स वज्जसिलाथंभादिसु वंजणसण्णिदस्स अवट्ठाणुवलंभादो । मिच्छत्तं पि वंजणपज्जाओ, तम्हा एदस्स उप्पाद-डिदि-भंगा कमेण तिण्णि वि अविरुद्धा त्ति घेत्तव्यं । उप्पज्जति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स। दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पण्णमविण ॥ २९ ॥ इस प्रकार आर्ष वचन है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जो अक्रमसे (युगपत् ) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, इन तीनों लक्षणोंवाला होता है, वह द्रव्य है । और जो क्रमसे उत्पाद, स्थिति और व्ययवाला होता है वह पर्याय है। इस प्रकारसे जिनेन्द्रका उपदेश है। शंका-यदि ऐसा है तो पृथिवी, जल, तेज और वायुके पर्यायपना प्रसक्त होता है? समाधान - भले ही उनके पर्यायपना प्राप्त हो जावे, क्योंकि, वह हमें इष्ट है । शंका-किन्तु उन पृथिवी आदिकोंमें तो द्रव्यका व्यवहार लोकमें दिखाई देता है ? समाधान- नहीं, वह व्यवहार शुद्धाशुद्धात्मक संग्रह-व्यवहाररूप नयद्वय निबंधनक नैगमनयके निमित्तसे होता है। शुद्ध द्रव्यार्थिकनयके अवलंबन करने पर छहों ही द्रव्य हैं। और अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बन करने पर पृथिवी, जल आदिक अनेक द्रव्य होते हैं, क्योंकि, व्यंजनपर्यायके द्रव्यपना माना गया है। किन्तु शुद्ध पर्यायार्थिकनयकी विवक्षा करने पर पर्यायके उत्पाद और विनाश, ये दो ही लक्षण होते हैं। अशुद्ध पर्यायार्थिकनयके आश्रय करने पर क्रमसे तीनों ही पर्यायके लक्षण होते हैं, क्योंकि, वज्रशिला, स्तम्भादिमें व्यंजनसंक्षिक उत्पन्न हुई पर्यायका अवस्थान पाया जाता है। मिथ्यात्व भी व्यंजनपर्याय इसलिए इसके उत्पाद, स्थिति और भंग, ये तीनों ही लक्षण क्रमसे अविरुद्ध हैं. ऐसा जानना चाहिए। पर्यायनयके नियमसे पदार्थ उत्पन्न भी होते हैं और व्ययको भी प्राप्त होते हैं। किन्तु द्रव्यार्थिकनयके नियमसे सर्व वस्तु सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट है, अर्थात् ध्रौव्यात्मक है ॥२९॥ _ १ दवं पज्जवविउयं दवविउत्ता य पज्जवा णस्थि । उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ स. त. १, १२. - २ उप्पादद्विदिभंगा विज्जंते पज्जएम पज्जाया। दव्वम्हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥ प्रव. सा. २,९. ३ स. त.१, ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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