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________________ १, ४, ९६.] फोसणाणुगमे कायजोगिफोसणपरूवणं [२६९ भवणवासिएसु एदेसिमुववादाभावा; सम्मादिहिउववादपाओग्गसोधम्मादिउवरिमविमाणाणं तिरियलोगस्स असंखेनदिभागे चेव अवट्ठाणादो । आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ९५॥ ___एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणवेदण-कसायपरिणदेहि आहारकायजोगिपमत्तसंजदेहि तीदे काले चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो फोसिदो । उववाद वेउधियं णस्थि । मारणंतियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, माणुसखेतादो असंखेज्जगुणो। आहारमिस्सकायजोगिपमत्तसंजदेहि सत्थाण-वेदण-कसायपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो फोसिदो। कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ९६ ॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-उववादपरिणदेहि मिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु पानव्यन्तर, ज्योतिष्क और भवनवासी देवों में इनका, अर्थात् वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका, उपपाद नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि जीवोंके उपपादके प्रायोग्य सौधर्मादि उपरिम विमानोंका तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागमें ही अवस्थान देखा जाता है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रमत्तसंयतोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ९५ ॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धातपरिणत आहारककाययोगी प्रमत्तसंयत जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और मनुष्य क्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। आहारककाययोगियोंके उपपाद और वैक्रियिकपद नहीं होते हैं । मारणान्तिकपदपरिणत आहारककाययोगी जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्ससंयतोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ओधके समान स्वस्थानस्वस्थान, वेदमा, कषाय और उपपादपदपरिणत कार्मणकाययोगी मिथ्या. रवि जीवोंने तीनोंही कालोंमें चूंकि सर्पलोग स्पर्श किया है, इसलिए सूत्रमें 'भो ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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