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________________ १, ३, ६२.] खेत्ताणुगमे संजममग्गणाखेत्तपरूवणं [१२३ ओघपमत्तादिरासीदो सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदपमत्तादओ समाणा ति एदेसि परूवणा ओघं भवदि । ण च सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेहितो पुधभावभूदा परिहारसुद्धिसंजदा अस्थि, जेण तदो भेदो होज्ज । किमिदि पुधभूदा णत्थि ? दुणयवदिरित्तछदुमत्थजीवाभावादो। सेसं सुगमं । - परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त-अप्पमत्तसंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ६१ ॥ एदस्स वि सुत्तस्स अत्थो पुवं परूविदो त्ति संपहि ण वुच्चदे । णवरि पमत्तसंजदे तेजाहारं णत्थि । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदउवसमा खवगा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ६२॥ ओघमें कही गई प्रमत्तसंयतादिराशिसे सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमवाले प्रमत्तसंयतादिक समान हैं, इसलिए इनके क्षेत्रकी प्ररूपणा ओघोक्त क्षेत्रके समान बन जाती है । और, सामायिक तथा छेदोपरथापनाशुद्धिसंयतोंसे परिहारविशुद्धिसंयत पृथग्भावरूप है नहीं, जिससे कि उनसे उनका भेद हो जाय । शंका-परिहारविशुद्धिसंयत, सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंसे पृथग्भूत क्यों नहीं है ? समाधान- क्योंकि, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंसे भिन्न छमस्थ जीवोंका अभाव है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है। परिहारविशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ६१॥ इस सूत्रका भी अर्थ पहले कहा जा चुका है, इसलिए अब नहीं कहते हैं। विशेष बात यह है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती परिहारविशुद्धिसंयतके तैजससमुद्धात और भाहारकसमुद्धात ये दो पद नहीं होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २॥ १ प्रतिषु 'दुण्णय' इति पाठ: १xxxपरिहारविशुद्धिसंयतानो प्रमताप्रमत्तानtxxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ३xxx सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतानांxxx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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