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________________ १२४] छखंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ६३. - सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु त्ति आधारणिदेसो । तत्थ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा दुविधा होंति उवसामगा खवगा चेदि । ते अप्पणो पदेसु वट्टमाणा चदुण्हं लोगाणम संखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे होति । णवरि मारणंतियपदे माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे होति । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चदुट्ठाणमोघं ॥ ६३॥ एत्थ ठाणसद्दो पुव्वुत्तणाएण गुणट्ठाणवाची । चदुण्हं ठाणाणं समाहारो चदुट्ठाणी, सा ओघं होदि । उवसंतकसाय-खीणकसाय-सजोगि-अजोगिजिणाणं जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदाणं अप्पणो ओघपरूवणं होदि त्ति जं वुत्तं होदि । संजदासजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥६४॥ एदस्स अत्थो पुव्वं परूविदो । असंजदेसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥६५॥ 'सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें' इस पदसे आधारका निर्देश किया गया । इस गुणस्थानमें सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत दो प्रकारके होते हैं, उपशामक और क्षपक । वे दोनों ही प्रकारके सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत अपने यथासंभव पदों में रहते हुए सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। विशेष बात यह है कि मारणान्तिकसमुद्धातपदमें उपशामक जीव मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। ___ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंमें उपशान्तकपाय गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक चारों गुणस्थानवाले संयतोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ६३ ॥ इस सूत्र में आया हुआ 'स्थान' शब्द पूर्वोक्त न्यायसे गुणस्थानका वाचक है। चार गुणस्थानोंके समुदायको 'चतु:स्थानी' कहते हैं। उनका क्षेत्र ओघके समान है । अर्थात् , उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिजिन और अयोगिजिन गुणस्थानवर्ती यथाख्यातविहारविशुद्धिसंयतोंका क्षेत्र अपने ओघक्षेत्रके समान होता है, ऐसा अर्थ कहा गया समझना चाहिए। संयतासंयत जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥६४॥ इस सूत्रका अर्थ पहले कहा जा चुका है। असंयतोंमें मिथ्यादृष्टि जीव ओघके समान सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ६५ ॥ १xxx यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतानां चतुपर्णा xx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. २xxx संयतासंयताना xx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८. ३xx असंयतानां च चतुर्णा सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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