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________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार (६) इन्द्रनन्दिकृत नीतिसार और ( ७ ) आशाधरकृत सागारधर्मामृत । इन सब ग्रंथोंमें केवल एक ही अर्थका और प्रायः उन्हीं शब्दों में एक ही पद्य पाया जाता है जिसमें कहा गया है कि देशविरत श्रावक या गृहस्थको वीरचर्या, सूर्यप्रतिमा, त्रिकाल - योग और सिद्धान्तरहस्यके अध्ययन करनेका अधिकार नहीं है । जिन सात ग्रंथोंमेंसे गृहस्थको सिद्धान्त - अध्ययनका निषेध करनेवाला पद्य उद्धृत किया गया है उनमें से नं. ५ और ६ को छोड़कर शेष पांच ग्रंथ इस समय हमारे सन्मुख उपस्थित हैं । वसुनन्दिकृत श्रावकाचारका समय निर्णीत नहीं है तो भी चूंकि आशाधरके ग्रंथों में उनके अवतरण पाये जाते हैं और उनके स्वयं ग्रंथोंमें अमितगतिके अवतरण आये हैं, अतः वे इन दोनोंके बीच अर्थात् विक्रमकी १२ वीं १३ हवीं शब्दादिमें हुए होंगे । उनके ग्रंथकी कोई टीका भी उपलब्ध नहीं है, जिससे लेखकका ठीक अभिप्राय समझमें आ सकता। उनकी गाथाकी प्रथम पंक्तिमें कहा गया है कि दिनप्रतिमा, वीरचर्या और त्रिकालयोग इनमें ( देशविरतोंका ) अधिकार नहीं है । दूसरी पंक्ति हैं ' सिद्धंतरहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं ' । यथार्थतः इस पंक्तिकी प्रथम पंक्तिके ' णत्थि अहियारो' से संगति नहीं बैठती, जब तक कि इसके पाठमें कुछ परिवर्तनादि न किया जाय । ' सिद्धंतरहस्लाण ' का अर्थ हिन्दी अनुवादकने ' सिद्धान्तके रहस्यका पढ़ना ' ऐसा किया है, जो आशाधरजीके किये गये अर्थ से भिन्न है । ग्रंथकारका अभिप्राय समझने के लिये जब आगे पीछेके पत्रे उलटते हैं तो सम्यक्त्वके लक्षण में देखते हैं अत्तागमतच्चाणं जं सहणं सुणिम्मलं होदि । संकाइदोसरहियं तं सम्मत्तं मुणेयव्वं ।। ६ ।। अर्थात्, जब आप्त आगम और तत्त्वों में निर्मल श्रद्धा हो जाय और शंका आदिक कोई दोष नहीं रहें तब सम्यक्त्व हुआ समझना चाहिये । अब क्या सिद्धान्त ग्रंथ आगमसे बाहर हैं, जो उनका अध्ययन न किया जाय ? या शंकादि सब दोषोंका परिहार होकर निर्मल श्रद्धा उन्हें बिना पढ़े ही उत्पन्न हो जाना चाहिये ! आगमकी पहिचान के लिये आगेकी गाथामें कहा गया हैअत्ता दोसविमुको पुव्वापरदोसवज्जियं वयणं । ( ३ ) अर्थात्, जिसमें कोई दोष नहीं वह आप्त है, और जिसमें पूर्वापर विरोधरूपी दोष न हो वह वचन आगम है । तब क्या आगमको बिना देखे ही उसके पूर्वापर-विरोध राहित्यको स्वीकार कर निःशंक, निर्मल श्रद्धान कर लेनेका यहां उपदेश दिया गया है ? जैसा हम देखेंगे, आगम और सिद्धान्त एक ही अर्थ द्योतक पर्यायवाची शब्द हैं । कहीं इनमें भेद नहीं किया गया । आगे देशविरत के कर्तव्यों में कहा गया है- ६ आर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम् । न वाचनीयं पुरतः सिद्धान्ताचारपुस्तकम् ॥ ( इन्द्रनंदिनीतिसार ) ७ श्रावको वीरचर्याःप्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥ ७, ५० ॥ (आशाधर - सागारधर्मामृत ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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