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षटखंडागमकी प्रस्तावना णाणे णाणुवयरणे णाणवंताम्म तह य भत्तीय । जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाणविणओ ॥ ३२२ ।।
अर्थात् , ज्ञान, ज्ञानके उपकरण अर्थात् शास्त्र, और ज्ञानवान्की नित्य भक्ति करना ही ज्ञानविनय है । और भी-- हियमियपिज्जं सुत्ताणुवचि अफरसमकक्कसं वयण। सजमिजगम्मि जे चाडुभासणं वाचिओ विणओ ॥ ३२७ ।।
अर्थात् , हित, मित, प्रिय और सूत्रके अनुसार वचन बोलना.... आदि वचनविनय है। इन गाथाओंमें जो ज्ञान, ज्ञानोपकरण और ज्ञानी का अलग अलग उल्लेख कर उनके विनयका उपदेश दिया गया है, तथा जो सूत्रके अनुसार वचन बोलने का आदेश है, क्या इस विनय और अनुसरणमें सिद्धान्त गर्मित नहीं है ? क्या सूत्रका अर्थ सिद्धान्त वाक्य नहीं है ? हम आगे चलकर देखेंगे कि सूत्रका अर्थ साक्षात् जिन भगवान् की द्वादशांग वाणी है । तब फिर द्वादशांगसे सम्बन्ध रखनेवाले सिद्धान्त ग्रंथोंके पठनका गृहस्थको निषेध किस प्रकार किया जा सकता है ? ।
अब श्रुतसागरजीकी षट्प्राभृतटीकाको लीजिये । कुंदकुंदाचार्यकृत सूत्रपाहुडकी २१ वीं गाथा है
दुइयं च वुत्तलिंग उक्किंट्र अवर सावयाणं च ।
भिक्खं भमेइ पत्तो समिदीमासेण मोणेण ॥ __ इस गाथामें आचार्यने ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकके लक्षण बतलाये हैं कि वह भाषासमितिका पालन करता हुआ या मौनसहित भिक्षाके लिये भ्रमण करनेका पात्र है । इसी गाथाकी टीका समाप्त हो जाने के पश्चात् 'उक्तं च समन्तभद्रेण महाकविना' कहके चार आर्याएं उद्धृत की गई हैं, जिनमें चौथी गाथा है — वीर्यचर्या च सूर्यप्रतिमा-' आदि । यहां न तो इसका कोई प्रसंग है और न पाहुडगाथामें उसके लिये कोई आधार है । यह भी पता नहीं चलता कि कौनसे समन्तभद्र महाकविकी रचनामेंसे ये पद्य उद्धृत किये गये हैं। जैनसाहित्यमें जो समन्तभद्र सुप्रसिद्ध हैं उनकी उत्कृष्ट और प्रसिद्ध रचनाओंमें ये पद्य नहीं पाये जाते । प्रत्युत इसके उनके रचित श्रावकाचारमें जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, श्रावकों पर ऐसा कोई नियंत्रण नहीं लगाया गया । अतएव वह अवतरण कहां तक प्रामाणिक माना जा सकता है यह शंकास्पद ही है।
स्वयं कुंदकुंदाचार्यकी इतनी विस्तृत रचनाओंमें कहीं भी इस प्रकारका कोई नियंत्रण नहीं है। इसी सूत्रपाहुडकी गाथा ५ और ७ को देखिये । वहां कहा गया है
सुत्तस्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अस्थं । हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्टी ॥ ५ ॥
सुत्तत्थपयविगट्ठो मिच्छादिट्ठी हु सो मुणेयव्यो ॥ ७ ॥ अर्थात् , जो कोई जिनभगवान्के कहे हुए सूत्रोंमें स्थित जीव, अजीव आदि सम्बन्धी नाना प्रकारके अर्थको तथा हेय और अहेयको जानता है वही सम्यग्दृष्टि है । सूत्रों के अर्थसे अष्ट हुआ मनुष्य मिथ्यादृष्टि है। यहां श्रुतसागरजी अपनी टीकामें कहते हैं 'सूत्रस्यार्थ जिनेन
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