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________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार वाले कोई भी सिद्धान्त ग्रंथ श्रावकोंके लिये क्यों निषिद्ध किये जायंगे, यह समझमें नहीं आता । सम्यग्दर्शनको निर्मल बनानेके लिये सिद्धान्तका आश्रय अत्यंत वांछनीय है। समस्त शंकाओंका निवारण होकर निःशंकिट-अंगकी उपलब्धिका सिद्धान्ताध्ययनसे बढ़कर दूसरा उपाय नहीं। जिन सैद्धान्तिक बातोंके तर्क-वितर्कमें विद्वानोंका और जिज्ञासुओंका न जाने कितना बहुमूल्य समय व्यय हुआ करता है और फिर भी वे ठीक निर्णय पर नहीं पहुंच पाते, ऐसी अनेक गुत्थियां इन सिद्धान्त ग्रंथोंमें सुलझी हुई पडी हैं । उनसे अपने ज्ञानको निर्मल और विकसित बनानेका सीधा मार्ग गृहस्थ जिज्ञासुओं और विद्यार्थियोंको क्यों न बताया जाय ? स्वयं धवलसिद्धान्तमें कहीं भी ऐसा नियंत्रण नहीं लगाया गया कि ये ग्रंथ मुनियोंको ही पढ़ना चाहिये, गृहस्थोंको नहीं। बल्कि, जैसा हम ऊपर देख चुके हैं, जगह जगह हमें आचार्यका यही संकेत मिलता है कि उन्होंने मनुष्यमात्रका ख्याल रखकर व्याख्यान किया है। उन्होंने जगह जगह कहा है कि 'जिन भगवान् सर्वसत्त्वोपकारी होते हैं, और इसलिये सबकी समझदारीके लिये अमुक बात अमुक रीतिसे कही गई है । यदि सिद्धान्तोंको पढ़नेका निषेध है, तो वह अर्थ या विषय की दृष्टिसे है कि भाषाकी दृष्टिसे, यह भी विचार कर लेना चाहिए । धवलादि सिद्धान्तग्रंथोकी भाषा वही है जो कुंदकुंदाचार्यादि प्राकृत ग्रंथकारोंकी रचनाओंम पाई जाती है, जिसके अनेक व्याकरण आदि भी हैं । अतएव भाषाकी दृष्टिसे नियंत्रण लगानेका कोई कारण नहीं दिखता। यदि विषयकी दृष्टिसे देखा जाय तो यहांकी तत्वचर्चा भी वही है जो हमें तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, गोम्मटसार आदि ग्रंथोंमें मिलती है। फिर उसी चर्चाको गृहस्थ इन ग्रंथोंमें पढ़ सकता है, लेकिन उन ग्रंथोंमें नहीं, यह कैसी बात है ? यदि सिद्धान्त-पठनका निषेध है तो ये सब ग्रंथ भी उस निषेध-कोटिमें आवेंगे। जब सिद्धान्ताध्ययनके निषेधवाले उपर्युक्त अत्यंत आधुनिक पुस्तकोंको सिद्धान्तके पर्यायवाची शब्द आगमसे उल्लिखित किया जा सकता है, तब एक अत्यन्त हीन दलीलके पोषण-निमित्त गोम्मटसार व सर्वार्थसिद्धि जैसे ग्रंथोंको सिद्धान्तबाह्य कह देना चरमसीमाका साहस और भारी अविनय है। यथार्थतः सर्वार्थसिद्धिमें तो कर्मप्राभृतके ही सूत्रोंका अक्षरशः उसी क्रमसे संस्कृत रूपान्तर पाया जाता है, जैसा कि धवलाके प्रकाशित भागोंके सूत्रों और उनके नीचे टिप्पणोंमें दिये गये सर्वार्थसिद्धिके अवतरणोंमें सहज ही देख सकते हैं। राजवार्तिक आदि ग्रंथोंको धवलाकारने स्वयं बड़े आदरसे अपने मतोंकी पुष्टिमें प्रस्तुत किया है। गोम्मटसार तो धवलादिका सारभूत ग्रंथ ही है, जिसकी गाथाएं की गाथाएं सीधी वहांसे ली गई हैं। उसके सिद्धान्तरूपसे उल्लेख किये जानेका एक प्रमाण भी ऊपर दिया जा चुका है। ऐसी अवस्थामें इन पूज्य ग्रंथोंको ' सिद्धान्त नहीं है ' ऐसा कहना बड़ा ही अनुचित है। ___ मैं इस विषयको विशेष बढ़ाना अनावश्यक समझता हूं, क्योंकि, उक्त निषेधके पक्षमें न प्राचीन ग्रंथोंका बल है और न सामान्य युक्ति या तर्कका । जान पड़ता है, जिस प्रकार वैदिक धर्मके इतिहासमें एक समय वेदके अध्ययनका द्विजोंके अतिरिक्त दूसरोंको निषेध किया गया श्रा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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