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१, ३, २४. ]
खेत्तागमे पुढ विकाइयादिखै त परूवणं
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ture जीवबहुत्तं च णायव्वं । बादरणिगोदपदिट्ठिदपज्जत्ता किमिदि सुत्तम्हि ण वृत्ता १ ण, तेसिं पत्तेयसरीरेसु अंतभावादो । बादरतेउकाइयपंज्जत्ता सत्थाण - वेदण-कसाय-वेडेब्बियसमुग्वादगदा पंचन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । मारणंतिय उववादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुस खेत्तादो असंखेज्जगुणे ।
बादरवा उकाइयपज्जत्ता केवडि खेत्ते लोगस्स संखेज्जदिभागे ॥ २४ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे - सत्थाण- वेदण-कसाय मारणंतिय उववादगदा बादरवाउपज्जत्ता तिन्हं लोगाणं संखेअदिभागे, दोलोगेर्हितो असंखेज्जगुणे | बादरबाउपज्जतरासी लोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तो मारणंतिय उववादगदो सव्वलोगे किण्ण होदि त्ति वृत्ते ण होदि, रज्जुपदरमुहेण पंचरज्जुआयामेण द्विदखेत्ते चेत्र पाएण तेसिमुप्पत्ती दो ।
तथा, उक्त इसी गुरूपदेश से बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर की अवगाहनामें जीवोंकी अधिकता भी जानना चाहिए ।
शंका- सूत्र में बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीव क्यों नहीं कहे ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, बादरनिगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंका प्रत्येकशरीर पर्याप्त वनस्पतिकायिक जीवों में अन्तर्भाव हो जाता है ।
स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्रात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत बादरतैजस्कायिक पर्याप्त जीव पांचों लोकोंके असंख्यातवें भाग में रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत वे ही बादर तैजस्कायिक जीव चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें • और मनुष्यलोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं ।
बाद वायुकायिक पर्याप्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २४ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्वात और उपपाद पदगत बादरवायुकायिक पर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोक संख्यातवें भाग में और तिर्यग्लोक तथा मनुष्यलोक इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं ।
शंका-बादर वायुकायिक पर्याप्तराशि लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है, जब वह मारणान्तिकसमुद्वात और उपपाद पदको प्राप्त हो तब वह सर्व लोकमें क्यों नहीं रहती है ? समाधान- नहीं रहती है, क्योंकि, राजुप्रतरप्रमाण मुखसे और पांच राजु आयामसे स्थित क्षेत्र में ही प्रायः करके उन बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंकी उत्पत्ति होती है ।
१ बादरवातकायिकामा विकुर्वणाद रज्जुव्यासायाम- पंचरज्जूदय क्षेत्रफलं लोकसंख्यातमागमात्रं भवति । गो. जी. जी. प्र. गा. ५४५.
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