SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ३, ९०.] खेत्ताणुगमे आहारमग्गणाखेत्तपरूवणं [१३० आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ८८ ॥ सवपदेहि ओघपरूवणादो विसेसो णस्थि त्ति ओघत्तं जुज्जदे । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली केवडि खेते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८९ ॥ एदस्स सुत्तस्स पज्जवट्टियपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला । णवरि उववादो सरीरगहिदपढमसमए वत्तव्यो । सजोगिकेवलिस्स वि पदर-लोगपूरणसमुग्घादा वि णस्थि, आहारित्ताभावादो। अणाहारएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ९०॥ दव्वट्ठियपरूवणाए ओघं होदि । पज्जवट्ठियपरूवणाए पुण उववादपदमेक्कं चेव अस्थि । सेसं णस्थि । सेसं सुगमं । __ आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र ओषके समान सर्व लोक है ।। ८८ ॥ मिथ्यादृष्टि जीवोंके स्वस्थान आदि सभी पदोंके साथ क्षेत्रसम्बन्धी ओघनरूपणासे विशेषता नहीं है, इसलिए उनके क्षेत्रके ओघपना बन जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं।। ८९ ।। इस सूत्रकी पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी क्षेत्रप्ररूपणा ओघक्षेत्रप्ररूपणाके समान है। विशेष बात यह है कि आहारक जीवोंके उपपादपद शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयमें कहना चाहिए, (क्योंकि, तभी जीव आहारक होता है)। आहारक सयोगिकेवलीके भी प्रतर और लोकपूरणसमुद्धात नहीं होते हैं, क्योंकि, इन दोनों अवस्थाओं में केवलीके आहारकपनेका अभाव है, अर्थात् प्रतर और लोकपूरणसमुद्धातकी अवस्थामें सयोगिकेवली भगवान् अनाहारक रहते हैं। . अनाहारकोंमें मिध्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान सर्वलोक है ।। ९० ॥ द्रव्यार्थिकनयकी प्ररूपणासे अनाहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान होता है । किन्तु पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणाकी अपेक्षा तो एक उपपादपद ही होता है। शेष पद नहीं होते हैं, (क्योंकि, अनाहारक मिथ्यादृष्टि जीवों में स्वस्थानादि शेष सभी पद मसंभव हैं)। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है। - १ आहारानुवादेन आहारकाणां मिश्यादृष्टवादिक्षीणकषायान्ताना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । सबोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy