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________________ १, ३, १. ] खेत्ताणुगमे णिद्देसपरूवणं [ न, क्षियन्ति' निवसन्त्यस्मिन् जीवा इति कर्मणां क्षेत्रत्वसिद्धेः । ( जं ) णोकम्मदव्वखेत्तं तं दुविहं, ओवयारियं पारमत्थियं चेदि । तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्धं सालिखेत्तं बीहिखेत्तमेवमादि । पारमत्थियं णोकम्मदव्वखेत्तं आगासदव्त्रं । उत्तं चखेत्तं खलु आगासं तव्त्रदिरित्तं च होदि णोखेत्तं । जीवा य पोग्गला वि य धम्मात्रम्मत्थिया कालो ॥ ३ ॥ आगासं सपदेसं तु उड्डाधा तिरिओ वि य । खेत्तलोगं त्रियाणाहि अनंत जिण देसिदं ॥ ४ ॥ सो विणिक्खेवो दव्वट्टियस्स, दव्वेण विणा एदस्स संभवाभावादो । जं तं भावखेत्तं तं दुविहं, आगमदो णोआगमदो भावखेत्तं चेदि । आगमदो भावखेत्तं खेतपाहुडजाणुगो उवजुत्तो । गोआगमदो भावखेत्तं आगमेण विणा अत्थोवजुत्तो ओदइयादि समाधान- नहीं; क्योंकि, जिसमें जीव ' क्षियन्ति ' अर्थात् निवास करते हैं, इस प्रकारकी निरुक्ति के बलसे कर्मोके क्षेत्रपना सिद्ध है । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यका दूसरा भेद जो नोकर्मद्रव्यक्षेत्र है, वह औपचारिक और पारमार्थिक भेदसे दो प्रकारका है । उनमेंसे लोकमें प्रसिद्ध शालिक्षेत्र, ग्रीहि - ( धान्य- ) क्षेत्र इत्यादि औपचारिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाशद्रव्य पारमार्थिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्र है । कहा भी है आकाशद्रव्य नियमसे तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्र है, और आकाश द्रव्य के अतिरिक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा कालद्रव्य नोक्षेत्र कहलाते हैं ॥ ३ ॥ आकाश सप्रदेशी है और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है । उसे ही क्षेत्रलोक जानना चाहिए । उसे जिन भगवान्‌ने अनन्त कहा है ॥ ४ ॥ यह आगम और नोआगम भेदरूप द्रव्यक्षेत्रनिक्षेप भी द्रव्यार्थिकनयका विषय है। क्योंकि, द्रव्य अर्थात् सामान्यके विना यह निक्षेप संभव नहीं है । जो भावरूप क्षेत्रनिक्षेप है, वह आगमभावक्षेत्र और नोभागमभावक्षेत्र के भेदसे दो प्रकारका है ! क्षेत्रविषयक प्राभृतके ज्ञाता और वर्तमानकालमें उपयुक्त जीवको आगमभावक्षेत्रनिक्षेप कहते हैं । जो आगमके अर्थात् क्षेत्रविषयक शास्त्र के उपयोग के विना अन्य पदार्थ में उपयुक्त हो उस जीवको; अथवा, औदयिक आदि पांच प्रकारके भावोंको नोभागमभावक्षेत्रनिक्षेप कहते हैं । I १ क्षि निवासगत्योः । २ आगासस्स पएसा उडूं च अहे य तिरियलोए य । जाणाहि खित्तलोगं अनंत जिणदेसिअं सम्म ॥ १९७ ॥ ( अभि. रा. लोक.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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