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________________ ४७०) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, २९७. किण्ण पडिवज्जदि ? ण, तेउलेस्साए पडिय अंतोमुहुत्तमणच्छिय हेट्ठिमगुणग्गहणाभावा । अधवा अप्पमत्तो पम्मलेस्साए अच्छिदो अप्पमत्तद्धाखएण पमत्तो जादो। विदियसमए मदो देवत्तं गदो। - अप्पमत्तसंजदस्स उच्चदे-मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टी संजदासंजदो पमत्तसंजदो वा वड्डमाणतेउलेस्सिओ तेउलेस्सद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति अप्पमत्तो जादो। तेउलेस्साए सह एगसमयं अप्पमत्तो दिट्ठो । विदियसमए पम्मलेस्सिगो जादो। एसा लेस्सापरावत्ती (१) । अधवा पमत्तो हायमाणपम्मलेस्सिगो एगसमयमप्पमत्तद्धा अत्थि त्ति पम्मलेस्सद्धाए खएण तेउलेस्सिगो जादो। विदियसमए पमत्तगुणं पडिवण्णो । एसा गुणपरावत्ती (२)। अधवा पमत्तो वड्डमाणतेउलेस्सिओ अप्पमत्तो जादो । विदियसमए मदो देवत्तं गदो । एवं मरणेण (३)। पमत्तो वड्डमाणपम्मलेस्सिगो पम्मलेस्सद्धाए एगसमओ अस्थि समाधान- नहीं, क्योंकि, हीयमान लेश्याके साथ अप्रमत्तगुणस्थानके ग्रहण करनेका अभाव है। - शंका-तो उक्त प्रकारका जीव मिथ्यात्व आदिक नीचेके गुणस्थानको क्यों नहीं प्राप्त हो जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तेजोलेश्यामें गिर करके अन्तर्मुहूर्त रहे विना नीचेके गुणस्थानोंके ग्रहण करनेका अभाव है। अथवा, कोई अप्रमत्तसंयत पद्मलेश्यामें विद्यमान था। वह अप्रमत्तसंयतगुणस्थानके कालक्षयसे प्रमत्तसंयत हो गया। वह द्वितीय समयमें मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ। ___ अब अप्रमत्तसंयतके एक समयसम्बन्धी लेश्यादिपरिवर्तनको कहते हैं- वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव, तेजोलेश्याके कालमें एक समय अवशेष रहने पर अप्रमत्तसंयत हो गया। वह तेजोलेश्याके साथ एक समय अप्रमत्तसंयतरूपसे दृष्टिगोचर हुआ, और द्वितीय समयमें पद्मलेश्यावाला हो गया। यह लेश्यापरिवर्तन है (१)। अथवा, हायमान पद्मलेश्या. वाला कोई प्रमत्तसंयत, एक समय अप्रमत्तसंयत कालके अवशेष रहने पर पद्मलेश्याके काल क्षयसे तेजोलेश्यावाला हो गया, और द्वितीय समयमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुआ। यह गुणस्थानपरिवर्तन है (२)। अथवा, वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयत हो गया। वह द्वितीय समयमें मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार मरणसे एक समय लब्ध हुआ (३)। कोई वर्धमान पद्मलेश्यावाला प्रमत्तसंयत, पद्मलेश्याके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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