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________________ २०) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, २. रज्जुवग्गमुहलोगणालिगम्भो । एसो पिंडिजमाणो सत्तरज्जुघणपमाणो होदि। जदि लोगो एरिसो ण घेप्पदि तो पदरगदकेवलिखेत्तमाहणटुं वुत्त दो-गाहाओ णिरस्थियाओ होज, तत्थ वुत्तफलस्स अण्णहा संभवाभावा । काओ ताओ दो गाहाओ ति वुत्ते वुच्चदे मुह-तलसमास-अद्धं वुस्सेधगुणं गुणं च वेधेण । घणगणिदं जाणेज्जो वेत्तासणसंठिये खेत्ते ॥ ९॥ स्थित है, चौदह राजु लम्बी एक राजुके वर्गप्रमाण मुखवाली लोकनाली जिसके गर्भ में है, ऐसा पह पिंडरूप किया गया लोक सात राजुके घनप्रमाण अर्थात् ७४ ७४७ = ३४३ राजु है। विशेषार्थ-लोकका उपर्युक्त विस्तार इलप्रकार है- लोक सर्व आकाशके मध्यमें स्थित है। उसका आयाम चौदह राजु है। पूर्व-पश्चिम तलभाग सात राजु, लोकके आधे भर्थात् सात राजु ऊपर ज कर मध्यलोकमें एक राजु, लोकके पौनभाग अर्थात् साढ़े दस राजु ऊपर जाकर ब्रह्मलोकमें पांच राजु, और पूरे चौदह राजु ऊपर जाकर लोकके अन्तिम भागमें एक राजु विस्तार है । लोकका उत्तर-दक्षिण विस्तार सर्वत्र सात राजु है । इसप्रकारके लोकके बीच एक राजु चौड़ी चतुष्कोण और चौदह राजु ऊंवी त्रसनाड़ी है । पूर्व-पश्चिम भागमें लोक घट-बड़ विस्तारवाला है । इसप्रकार लोक सात राजुके घनप्रमाण होता है। यदि इसप्रकारका लोक ग्रहण नहीं किया जायगा, तो प्रतरसमुद्धातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ कही गई दो गाथाएं निरर्थक हो जायेंगी, क्योंकि, उन गाथाओं में कहा गया मनफल लोकको अन्य प्रकारसे माननेपर संभव नहीं है। शंका-घे दोनों गाथाएं कौनसी हैं ? समाधान-ऐसी शंका करनेपर कहते हैं मुखभाग और तलभागके प्रमाणको जोड़कर आधा करो, पुनः उसे उत्सेधसे गुणा करो, पुनः मोटाईसे गुणा करो। ऐसा करनेपर वेत्रासन आकारसे स्थित अधोलोकरूप क्षेत्रका पनफल जानना चाहिये ॥९॥ विशेषार्थ-त्रासन आकारवाले अधोलोकके मुखविस्तारका प्रमाण एक राजु है और मलविस्तारका प्रमाण सात राज है। इन दोनोंको जोड़नेपर आठ हुए। उसे आधा कर अधोलोककी ऊंचाईके प्रमाण सात राजुसे गुणा करनेपर अट्ठाईस हुए। इस संख्याको मधोलोककी उत्तर-दक्षिण दिशाकी मोटाई सात गजुसे गुणा करनेपर एकसौ छ्यानवे राज हुए। यही अधोलोकका घनफल है। जैसे-७+१% ८१ ८२ = ४, ४x७ = २८, २८४७% १९६ घनराजु । १ लोयबहुमज्झदेसे रुक्खे सारव रज्जुपदरजुदा। चोद्दसरज्जुत्तुंगा तसणाली होदि गुणणामा | त्रि. सा १४३. २ सव्वागासमणंतं तस्स य बहुमज्झदेसभागम्हि । लोगोऽसंखपदेसो जगदिघणप्पमाणो हु॥ त्रि.सा. ३. ३ ति. प. १, १६५. जंबू. प. ११, १०८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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