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________________ १, ३, २. ] तागमे लोगपमाणपरूवणं [ १९ पि जादिच्छियसण्णापसंगादो । किं च ' पदरगदो केवली केवडि खेते, लोगे असंखेज्जदिभागूणे । उड्डलोगेण दुवे उड्डलोगा उड्डलोगस्स तिभागेण देसूणेण सादिरेगा ' इच्चेदस्स सादिरेयद्गुणत्तस्स उडलोगादो कहणण्णहाणुववत्तीदो सिद्धं दोन्हं लोगाण मेगत्तमिदि । तम्हा पमाणलोगो छदव्त्रसमुदयलोगादो आगासपदेसगणणाए समाणो त्ति घेत्तव्वो । कधं लोगो पिंडिजमाणो सत्तरज्जुघणपमाणो होज ? वुच्चदे- लोगो णाम सव्वागासमज्झत्थो चोदसरज्जुआयामो दोसु वि दिसासु मूलद्ध-तिष्णि-चउन्भाग - चरिमेसु सत्तेक्कपंचेक्करज्जुरुंदो सव्वत्थ सत्तरज्जुबाहल्लो वड्डि-हाणीहि ट्ठिददोपेरंतो, चोइसरज्जुआयद सभी संज्ञाओं को भी यादृच्छिकपनेका प्रसंग आजायगा । दूसरी बात यह है कि ' प्रतरसमुद्धातगत केवली कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागले न्यून सर्व लोकमें रहते हैं । लोकके असंख्यातवें भागसे न्यून सर्व लोकका प्रमाण ऊर्ध्वलोकके कुछ कम तीसरे भागसे अधिक दो ऊर्ध्वलोकप्रमाण है।' इसप्रकार ऊर्ध्वलोककी अपेक्षा इस साधिक दुगुणताका कथन अन्यथा बन नहीं सकता था, अतएव प्रमाणलोक और द्रव्यलोक इन दोनों लोकोंका एकत्व सिद्ध हुआ । विशेषार्थ - यहां पर प्रतरसमुद्धातगत केवलीके क्षेत्रका प्रमाण जो ऊर्ध्वलोककी अपेक्षा दो ऊर्ध्वलोक और उसीके कुछ कम तीसरे भागसे अधिक बताया है, उसका अभिप्राय यह है कि ऊर्ध्वलोकका प्रमाण १४७ घनराजु है, इसे दुना करनेपर २९४ घनराजु हुए । इसमें १४७ का त्रिभाग ४९ घनराजुके जोड़ देनेपर ३४३ घनराजु होते हैं जो कि घनलोकका प्रमाण है । प्रतरसमुद्धातगत केवली लोकान्तमें स्थित वातवलयोंसे रुद्ध क्षेत्रको छोड़कर शेष संपूर्ण क्षेत्रको व्याप्त कर लेते हैं, इसलिये ३४३ घनराजुमेंसे वातवलयोंसे रुद्ध क्षेत्रको कम कर देना चाहिये । यही यहां पर देशोन क्षेत्रका अभिप्राय है । इसलिये, उक्तप्रकारसे प्रमाणलोक और द्रव्यलोकके एक सिद्ध हो जानेपर, प्रमाणलोक छह द्रव्योंके समुदायवाले लोकसे आकाशके प्रदेशगणनाकी अपेक्षा समान है, ऐसा अर्थ स्वीकार करना चाहिये । शंका - पिंडरूपसे एकत्रित करनेपर, अर्थात् घनरूप किया गया, यह लोक सात राजु घनप्रमाण कैसे हो जाता है ? समाधान- उक्त शंकाका उत्तर कहते हैं- जो सर्व आकाशके मध्य भागमें स्थित है, चौदह राजु आयामवाला है, दोनों दिशाओंके अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशा के मूल, अर्धभाग, त्रिचतुर्भाग और चरमभागमें यथाक्रमसे सात, एक, पांच और एक राजु विस्तारवाला है, तथा सर्वत्र सात राजु मोटा है, वृद्धि और हानिक द्वारा जिसके दोनों प्रान्तभाग १ म प्रत्योः ' लोगो असंखेज दिमागूणो ' इति पाठः । २ उदयदलं आयाम वास पुव्वारेण भूमिमुहे । रुचकपंच एक य रज्जू मज्झम्हि हाणिचयं ॥ त्रि. सा. १९३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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