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________________ १८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २. पमाणमेदं १०३३३ । पुणो सेसचउण्हं खेत्ताणं फलमेदस्स चउम्भागमेत्तं होदि । कारणं सुगम, अधोलोगपरूवणाए परविदत्तादो। जेणेवं सबखत्तफलाणि अणंतराइकंतखेत्तफलादो चउब्भागकमेणावहिदाणि, तेण तेसिं फले एत्थ मेलाविदे एत्तियं होदि १४४४४। उडलोगखेत्तस्स सधफलसमासो एत्तिओ होइ ५८३६५ ।' उड्डाधोलोगखेत्तफलसमासो एत्तिओ होदि १६४३३ई । तदो सिद्धं घणलोगस्स खेज्जदिभागत्तं । ण च एदव्यदिरित्तमण्णं सत्तरज्जुघणपमाणं लोगसण्णिदं खेत्तमत्थि, जेण पमाणलोगो छदव्यसमुदयलगादो अण्णो होज ? ण च लोगालोगेसु दोसु वि द्विसत्तरज्जुघणमेत्तागासपदेसाणं पमाणघणलोगववएसो, लोगसण्णाए जादिच्छियत्तप्पसंगा। होदु चे ण, सव्यागास-सेढि-पदर घणाणं जिसका प्रमाण ४३५१ x = १०३२५ इतना होता है। पुनः जो शेष चार त्रिकोण क्षेत्र हैं, उनका घनफल इस आयतचतुरनक्षत्रके चतुर्थभागमात्र होता है। इसका कारण सुगम है, क्योंकि, अधोलोककी प्ररूपणामें कह आये हैं (पृ. १६)। चूंकि इसप्रकार सर्व त्रिकोण क्षेत्रोंके घनफल अनन्तर अतिक्रान्त अर्थात् अभी पहले बताये गये क्षेत्रोंक घनफलसे चतुर्भागके क्रमसे अवस्थित हैं, इसलिए उनके घनफलको यहां अर्थत् १०३३६ में मिलानेपर १४६७४ इतना प्रमाण हो जाता है । उप्रलोकका समत्त घनफल ५८३६५६ इतना होता है। विशेषार्थ- ऊर्ध्वलोकका यह घनफल इसप्रकार आता है- ऊपर जो प्रमाण बतलाया गया है, वह प्रमाण ऊर्ध्वलोकके विभक्त किये गये दो भागों में से एक भागका है, इसलिर दोनों खंडों का घनफल लाने के लिए आयतचतुरस्रक्षेत्रक घनफ ठको ना किया, तब ११३११ ४ ३ = २२३२३ हुआ। तथा त्रिकोणक्षेत्रोंका भी घनफल दूना किया, तय १४१४६४ ३ = २०३९८ हुआ। इसप्रकार ऊर्ध्वलोककी सूचीका, आयतचतुरस्र और त्रिकोण-क्षेत्रोंका समस्त घाफल जोड़ देने पर ५३३३ + २२३२३ + २९६७४ = ५८,३५६ होता है। ऊप्रलोक और अधोलोकका घनफल जोड़ देनेपर १०६.३६४+१८१६५ =१६४३२८ इतना प्रमाण होता है। इसलिए अन्य आचार्योंके द्वारा माना हुआ लोक घनलोकके संख्यातवें भागप्रमाण सिद्ध हुआ। और, इस लोकके अतिरिक्त सात राजुके घनप्रमाण लोकसंज्ञक अन्य कोई क्षेत्र है नहीं, जिससे कि प्रमाणलोक छह द्रव्योंके समुदायरूपलोकले भिन्न माना जावे। और न लोकाकाश तथा अलंकाकाश, इन दोनोंमें ही स्थित सात राजुके घनमात्र आकाशप्रदेशोंके प्रमाणकी घनलोकसंज्ञा है, क्योंकि, ऐसा माननेपर लोकसंज्ञाके यादृच्छिकपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। शंका- यदि लोकसंज्ञाको यादृच्छिकपनेका प्रसंग प्राप्त होता है तो हो जाओ? समाधान-नहीं, क्योंकि, संपूर्ण आकाश, जगश्रेणी, जगप्रतर और घनलोक, इन १३६६ १ म १ प्रतौ ७७ म २ प्रतौ ६७ इति पाठः । १३५६ २ भागत्तं । ण च ' इति स्थाने क प्रतौ ' भागतं गणयवए', आ प्रतौ 'मागतं गणिय', म प्रत्योः '-मागतणं व ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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