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________________ विषय षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम नं. पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ.नं. १६५ पद्मलेश्यावाले संयतासंयत वर्ती क्षायिकसम्यक्त्वी जीवों का जीवोंका वर्तमान और अतीत स्पर्शनक्षेत्र ३०२ अनागतकालसंबंधी स्पर्शनक्षेत्र १७५ उपपादपदगत असंयत क्षायिक१६६ पद्मलेश्यावाले प्रमत्त और सम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनअप्रमत्तसंयतोंका स्पर्शनक्षेत्र क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें १६७ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर भागप्रमाण कैसे है, इस संयतासंयत गुणस्थान तकके शंकाका समाधान ३०२-३०३ शुक्ललेश्यावाले जीवोंका वर्त १७६ संयतासंयत गुणस्थानसे मान और अतीत-अनागतकाल लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान संबंधी स्पर्शनक्षेत्र २९९-३०० तकके क्षायिकसम्यक्त्वी १६८ शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच, शुक्ल जीवोंका सोपपत्तिक स्पर्शनलेश्यावाले देवोंमें क्यों नहीं क्षेत्र-वर्णन ३०३-३०४ १७७ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे उत्पन्न होते हैं, इस शंकाका लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान समाधान ३०० तकके वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंका १६९ उपपादपदपरिणत शुक्ललेश्या स्पर्शनक्षेत्र ३०४ वाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके १७८ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतथा मारणान्तिकपदपरिणत वर्ती औपशमिकसम्यक्त्वी शुक्ललेश्यावाले संयतासंयत जीवका स्पर्शनक्षेत्र, तथा जीवोंके देशोन छह बटे उसके ओघके समान कहने में चौदह भागप्रमाण स्पर्शन उपस्थित आपत्तिका परिहार ३०४-३०५ क्षेत्रका सोपपत्तिक निरूपण "१७९ संयतासंयत गुणस्थानसे १७० प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर लेकर उपशान्तकषाय गुणसयोगिकेवली गुणस्थान तकके स्थान तकके उपशमसम्यशुक्ललेश्यावाले जीवोंका ग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र स्पर्शनक्षेत्र ३००-३०१ • सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्य११ भव्यमार्गणा मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि १७१ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर जीवोंका पृथक् पृथक् अयोगिकेवली गुणस्थान तकके स्पर्शनक्षेत्र ३०६ भव्यजीवोंका स्पर्शनक्षेत्र १३ संज्ञिमार्गणा ३०६-३०७ १७२ अभव्य जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र , १८१ संही मिथ्यादृष्टि जीवोंका १२ सम्यक्त्वमार्गणा ३०२-३०६ वर्तमान और अतीतकालिक १७३ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे स्पर्शनक्षेत्र ३०६-३०७ लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान १८२ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतकके सम्यक्त्वी जीवोंका से लेकर क्षीणकषाय गुण. स्पर्शनक्षेत्र ३०२) स्थान तकके संज्ञी जीवोंका १७४ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान स्पर्शनक्षेत्र ३०७ ६०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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