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________________ (१७) क्षेत्र कालानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय १८३ असंशी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ३०७ ७ व्यवहारकालके अस्तित्वकी १४ आहारमार्गणा ३०८-३०९/ पुष्टिमें पंचास्तिकायप्राभृतकी गाथाओंका उल्लेख ३१७ १८४ आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ३०८ ८ प्रकृतमें नोआगमभावकालका १८५ आहारमार्गणाकी अपेक्षा उप प्रयोजन और उसके समय, पादपदका राजुप्रमाण आयाम आवली, मुहूर्त, वर्ष आदि नहीं पाया जाता, अतःसर्वलोक स्वरूप होनेका निरूपण प्रमाण स्पर्शनक्षेत्रके अभाव ९ कालशब्दकी निरुक्ति और होनेसे ओघपना नहीं बनता उसके पर्यायवाची नामाका है, इस शंकाका समाधान निरूपण ३१७-३१८ १८६ सासादनसम्यग्दृष्टि गुण |१० समय,आवली, उश्वासनिःश्वास स्थानसे लेकर सयोगिकेवली स्तोक, लव, नाली, मुहूर्त और गुणस्थान तकका स्पर्शनक्षेत्र दिवसके कालप्रमाणका सप्र१८७ अनाहारक जीवोंका स्पर्शन माण निरूपण ३१८ ३०९ ११ दिन और रात्रिसम्बन्धी तीस कालानुगम मुहूतोंके नाम ३१८-३१९ १२ पक्षका प्रमाण और दिवसोंके नाम विषयकी उत्थानिका ३१३-३२३ ३१९ १३ मास, वर्ष और युग आदिका १ धवलाकारका मंगलाचरण और स्वरूप ३२० प्रतिज्ञा २ कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश ३१३ १४ निर्देश, स्वामित्व आदि प्रसिद्ध भेद-निरूपण छह अनुयोगद्वारोंसे कालका ३ नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्य स्वरूप-निरूपण ३२०-३२२ काल और भावकाल, इन चार |१५ यदि काल एकमात्र मनुष्यक्षेत्रके प्रकारके कालनिक्षेपोंका सभेद सूर्यमंडल में ही अवस्थित है,तो स्वरूप-निरूपण ३१३-३१७ उसके द्वारा छह द्रव्योंके परि. ४ तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य णाम कैसे प्रकाशित किये जा कालका स्वरूप और उसकी सकते हैं, इस शंकाका समाधान ३२० पुष्टिमें पंचास्तिकायप्राभृत, जीव- १६ देवलोकमें तो दिन-रात्रिरूप समास और आचारांगकी गाथा कालका अभाव है, फिर वहां ओका उल्लेख ३१४-३१६ पर कालका व्यवहार कैसे होता ५ द्रव्यकालके अस्तित्वको सम है, इत्यादि कालसम्बन्धी अनेकों र्थन करते हुए तत्त्वार्थसूत्रका शंकाओंके अपूर्व समाधान ३२१ सूत्रप्रमाण-निरूपण ३१६/१७ निर्देशके पर्यायवाची नाम बतला ६ प्रकृत जीवस्थान आदिमें द्रव्य कर दोनों प्रकारके निर्देशोंकी कालके न कहनेका कारण सार्थकताका निरूपण ३२२-३२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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