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________________ [ १, ३, २. छक्खंडागमे जीवाणं ३६]. पंचस दुस्सेह-तदद्धवित्थार- महामच्छखेत्तं पि संखेज्जाणि पमाणघणंगुलाणि होति' । एत्थ घणंगुलस्स संखेज्जदिभागं पक्खिविय अद्वेण छिण्णे वि संखेज्जाणि पमाणघणंगुलाणि होंति त्ति सिद्धं। किं च विहारवदिसत्थाणे ण तिरिक्खखेत्तस्स पमाणत्तं, किंतु देवखेत्तस्सेव, पदरंगुलस्स संखेज्जे दिभागमेत्तमुहेण संखेज्जजोयणसहस्सं विहरमाण देवोगाहणार संखेज्ज - घणंगुलतुवलभादो | तेण संखेज्जघणंगुलोगाहणाए गुणेयव्वमिदि । असंखेज्जजोयणाणि उदाहरण - शंखक्षेत्रका आयाम १२ योजन; मुख ४ योजन | १२ × १२ = १४४; १४४ ३ = १४२; १४६x२ = २९२; २९२ ÷ ४ = ७३; १२ - ४ = ८; १२ +८ = २०१ २० : ४ = ५; उत्सेध घनयोजनों में शंखक्षेत्रका घनफल | ३६५ x ३६२३८७८६५६ प्रमाण घनांगुलों में शंखक्षेत्रका घनफल । एक हजार योजन आयाम, पांचसौ योजन उत्सेध और उत्सेधके आधे अर्थात् ढाईसौ योजन विस्तारवाले महामत्स्यका क्षेत्र भी घनफलरूप करनेपर संख्यात प्रमाणघनांगुल होता है । - १४२ + ( ३ ) = १४२ + ४ = १४६; Jain Education International = उदाहरण - महामत्स्यका आयाम १००० योजन; उत्सेध ५०० योजन; विष्कंभ २५० । १००० x ५०० = ५०००००, ५००००० ४२५० = १२५०००००० योजनों में घनफल । १२५०००००० × ३६२३८७८६५६ = ४५२९८४८३२००००००००० प्रमाण घनांगुलों में महामत्स्यका घनफल । इसप्रकार उत्कृष्ट अवगाहनारूपसे आये हुए इन प्रमाणघनांगुलों में घनांगुल के संख्यातवें भागप्रमाण जघन्य अवगाहनाको प्रक्षिप्त करके जो जोड़ हो उसे आधेसे छिन करनेपर भी संख्यात प्रमाण घनांगुल ही रहते हैं, यह सिद्ध हुआ । दूसरी बात यह है कि विहारवत्स्वस्थानमें तिर्यचोंके क्षेत्रकी प्रमाणता (प्रधानता ) नहीं है, किन्तु देवक्षेत्रकी ही प्रधानता है, क्योंकि, प्रतरांगुल के संख्यातवें भागप्रमाण मुखरूपसे अर्थात् विष्कंभ और उत्सेधरूप से विहार करनेवाले देवोंकी संख्यात हजार योजन प्रमाण अवगाहनामें घनफलरूपसे संख्यात घनांगुल पाये जाते हैं, इसलिये विहारवत्स्वस्थान राशिको संख्यात घनांगुलरूप अवगाहनासे गुणित करना चाहिये । ७३ × ५ = ३६५ १३२२७१५७०९४४० तेहसरिभूदखे सफलं पंचजोयणबहल्लेण गुणिदे घणजोगणाणि तिष्णिसयपण्णट्ठी होंति ३६५ । एदं घणपमानंगुलाणि कदे एकल क्ख बत्तीसस इस्स- दोण्णिसय एक्कइ सरि कोर्डाओ सत्तावण्ण लक्खणवस इस्सच उस यचालीस रूहि गुणिदघणंगुलमेत्त होदि । तं चेदं १३२२७१५७०९४४० । ति. प. प. १९५ १ सयंपहाचल परभागट्टियखेत्ते उप्पण्णसम्मुच्छिममहामच्छस्स सव्वुक्करसोगाणा xx उस्सेहजोयणेण एक्स हस्तायामं पंचसदत्रिक्खमं तदद्धउस्सेहं तं पमाणंगुले कीरमाणे चउस इस्स - पंचसय एउणतीसकोडीओ चुलसीदिलक्ख-तेसीदिस इस्स- दुसयकांडिरूवेहि गुणिदपमाणवणंगुलाणि भवंति । तं चेदं ४५२९८४८३२००००००००० | वि. प. प. १९६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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