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________________ १, ३, २.] खेत्ताणुगमे तिरियलोगपमाणपरूवणं [ ३७ विहरंता वि देवा अस्थि त्ति चे ण, तेसिं देवाणममंखेज्जदिभागत्तेण पहाणत्ताभावादो। तं कुदो णव्वदे ? 'तिरियलोगस्स संखेज्जदिभाए' त्ति वक्खाणादो । तिरियलोगस्म संखञ्जदि. भागतं कधं ? तिरियलोगो णाम जोयणलक्खसत्तभागमेत्तसूचिअंगुलबाहल्लजगपदरमेत्तो । तं पुबिल्लविहारवदिसत्थाणखेत्तेणोवट्टिदे संखेज्जरूवाणि लब्भंति । तेण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे त्ति वुत्तं । अड्डाइजखेत्तादो विहारवदिसत्थाणजीवखेत्तमसंखेजगुणं । कुदो? शंका- असंख्यात योजनप्रमाण विहार करनेवाले भी देव होते हैं ? समाधान-नहीं, क्यों के, असंख्यात योजनप्रमाण विहार करनेवाले देव सर्व देषराशिके असंख्यातवें भागमात्र हैं, अतः उनकी यहांपर प्रधानता नहीं है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-मिथ्यादृष्टिविहारवत्स्वस्थान राशि 'तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहती है। इसप्रकारके व्याख्यानसे उक्त बात जानी जाती है। शंका-मिथ्यादृष्टिविहार वत्स्वस्थान राशिके रहनेका क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यात भागमात्र कैसे है? समाधान- एक लाख योजनमें सातका भाग देनेसे जितने सूच्यंगुल लब्ध आधे तत्प्रमाण ब हल्यरूप जगप्रतरप्रमाण तिर्यग्लोक है । इसे पूर्वोक्त विहारवत्स्वस्थानरूप क्षेत्रसे भाजित करनेपर संध्यात रूप लब्ध आते हैं, इसीलिये तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें मिथ्यादृष्टि विहारवत्स्वस्थानराशि रहती है, ऐसा कहा है। विशेषार्थ-तिर्यग्लोक पूर्व-पश्चिम एक राजु चौड़ा, उत्तर दक्षिण सात राजु लम्बा, और एक लाख योजन ऊंचा है। इसे जगप्रतररूपसे करने के लिये एक लाख योजनमें सातका भाग देना चाहिये, क्योंकि, तिर्यग्लोक भी उत्तर दक्षिण सात राजु तो है ही, किन्तु पूर्व-पश्चिम जो एक राजुमात्र है उसे सात राजुप्रमाण प्रकल्पित करने के लिये उत्सेधमें सातका भाग देनेसे उत्सेध एक लाख योजनका सातवां भाग रह जाता है, और पूर्व-पश्चिममें सात गजु. प्रमाण क्षे क्षेत्र हो जाता है। इसप्रकार एक लाख योजनके सातवें भागमे जितने सूच्यंगल होंगे तत्प्रमाण बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण तिर्यग्लोक आ जाता है। एक योजनमें ७६८००० सूच्यंगुल होते हैं, इसलिये एक लाख योजनके सातवें भागमें १०९७१४२८५७१३ सूच्यंगुल होंगे। अतएव १०९७१४२८५७१३ सूख्यंगुलप्रमाण जगप्रतर तिर्यग्लोक जानना चाहिये । प्रतरांगुलके संख्यातवें भागका जगप्रतरमें भाग देनेसे असपर्याप्तगशिका प्रमाण आता है, और इसके संख्यात एक भागप्रमाण विहारवत्स्वस्थानराशि है। विहारवत्स्वस्थानराशिमें एक जीवकी मध्यम अवगाहना संख्यात घनांगुल है तो उपर्युक्त राशिका कितना क्षेत्र होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करनेपर विहारवत्स्वस्थानराशिका क्षेत्र संख्यात सूच्यंगुल गुणित जगप्रतरप्रमाण भा जाता है जो तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। विहारपत्स्वस्थान जीवोंका क्षेत्र ढाई द्वीपसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, अढ़ाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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