SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रां कथन ३ प्रस्तुत खंडांश में जीवट्टाणकी तीन प्ररूपणाएं आईं हैं— क्षेत्र, स्पर्शन और काल । इनमें क्रमशः ९२, १८५ और ३४२ सूत्र पाये जाते हैं । इनकी टीकामें क्रमशः लगभग १०९, १२४ और ११५ शंका-समाधान आये हैं । हिन्दी अनुवाद में अर्थको स्पष्ट करने के लिये क्रमशः ३५, १७ और ८ विशेषार्थ, तथा २७ और २५ गणितके उदाहरण जोड़े गये हैं । तुलनात्मक व पाठ-भेद संबंधी टिप्पणियोंकी संख्या क्रमशः १९७, १४८ और २७६ है । इस प्रकार इस ग्रंथभागमें लगभग ३४० शंका-समाधान, ६० विशेषार्थ, ५२ गणितोदाहरण, तथा ६२१ टिप्पण पाये जायेंगे । इनमें और विशेषतः प्रथम I दो प्ररूपणओंमें द्रव्यप्रमाणप्ररूपणाके सदृश बहुतसा गणित भाग आया है । विशेषता यह है कि यहांका गणित प्राय: क्षेत्रमिति [ Geometry ] से संबंध रखता है, जब कि द्रव्यप्रमाणका गणित अंकगणितसंबंधी था । लोकके आकारसंबंधी मान्यताओंमें मतभेद और उनमें तथ्यातथ्य निर्णय के लिये उनके घनप्रमाण लाने की प्रक्रियाएं जैन करणानुयोगकी बिलकुल नई चीजें हैं । उसी प्रकार शंखक्षेत्र, गोझीक्षेत्र, भ्रमरक्षेत्र व मत्स्यक्षेत्र के घनफलकी प्रक्रियाएं भी ध्यान देने योग्य हैं । स्पर्शनप्ररूपणा में द्वीपसागरों के विस्तार और तत्संबंधी चंद्रोंके प्रमाणका गणित भी बड़ा सूक्ष्म है और अनेक गणितसूत्रों से संबंध रखता है । 1 इस सत्र गणितको विधिवत् समझने व समझाने में हमें पुनः हमारे कालेजके गणित अध्यापक प्रोफेसर काशीदत्तजी पांडे से बहुत सहायता मिली है । जैसे परिश्रम से उन्होंने द्रव्यप्रमाणके गणितको व्यवस्थित करा दिया था, वैसे ही उन्होंने यहां भी बड़ा योग दिया । लोकाकार संबंधी मतभेद व प्रमाणके गणित को समझने के लिये हमें उस उस आकार के काष्ठादर्शों ( wooden models ) की आवश्यकता पड़ी जो हमारे प्रियमित्र, श्रद्धेय पं. सूरजभानुजी वकीलके सुपुत्र, कुलवंतरायजी जैनी के परिश्रमसे तैयार हो गये । उन्होंने उनके कुछ चित्रादि बनाकर भी दिये जिनसे विषय के स्पष्टीकरण में हमें बड़ी सहायता मिली। उन्हीं काष्ठादर्शों व चित्रोंके आधारसे तथा अन्य गणित परसे हमारे नगरके 'न्यू हाइस्कूल' के ड्राइंग मास्टर श्रीयुक्त एस. वाय. पतकी, डी. टी. सी, ने हमें वे वीस चित्र बनाकर दिये जिनके ब्लाक इस भाग में प्रकट किये जा रहे हैं, तथा जिनकी सहायता से तत्संबंधी गणित हमारे पाठकों को भी सुग्राह्य हो सकेगा । इस सब सहायता के लिये हम उक्त सज्जनोंके बहुत कृतज्ञ हैं । हमारी प्रतियों की साधन-सामग्री पूर्ववत् कायम है जिसके लिये हम अमरावती जैन मंदिर, सिद्धान्तभवन आरा, तथा कारंजा ब्रह्मचर्याश्रमके अनुगृहीत हैं । हमारे संशोधन सहायक भी पूर्ववत् स्थिर हैं । गत भागकी प्रस्तावना के भीतर हमने एक शंका समाधानका स्तम्भ भी रखा था जिसमें उस समय तक आई हुई चौवीस शंकाओं के उत्तर दिये गये थे । समालोचकोंने इस स्तम्भ पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy