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________________ १, ४, १२. ] फोसणानुगमे रइयफ सणपरूवण [ १७३ कालमस्सिदूण पज्जवट्ठियपरूवणाए खेत्तभंगो चेव । णवरि कवाडगदस्स पणदालीसजोयण सदसहस्सबाहल्लं जगपदरमेगं कवाडखेतं होदि । अवरं णवदिजोयण सदसहस्सबाल्लं जगपदरं होदि । एवं दोणि कवाडखेत्ताणि मेलिदे तिरियलोगादो संखेज्जगुणाणि । ( एवमोघपरूवणा समत्ता ) आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ११ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण - कसाय - वेउब्विय - मारणं तिय-उववादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो वट्टमाणकाले पोसिदा, माणुसखेचादो असंखेज्जगुणो । सेसं खेत्तभंगो । छ चोइस भागा वा देसूणा ॥ १२ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदि सत्याण- वेदण-कसाय - वे उब्वियसमुग्धादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले रइएहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्ज - गुण फोसिदो । सो अत्थो सुत्ते अबुत्तो कथं परूविज्जदे ? ण, सुत्तत्थेण ' वा ' सद्देण पैतालीस लाख योजन वाहल्यवाला एक जगप्रतरप्रमाण कपाटक्षेत्र होता है। (यह कायोत्सर्गस्थ harini अपेक्षा जानना ) । और दूसरा अर्थात् समुपविष्ट केवली के कपाटसमुद्धातका क्षेत्र नव्वै लाख योजन बाहल्यवाले जगप्रतरप्रमाण कपाटसमुद्धातसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र होता है । इस प्रकार दोनों कपाटक्षेत्रोंको मिला देनेपर तिर्यग्लोकले संख्यातगुणा क्षेत्र हो जाता है । ( इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई । ) आदेश से गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ११ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदगत मिथ्यादृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र वर्तमानकाल में स्पर्श किया है । शेष कथन क्षेत्रप्ररूपणा के समान जानना चाहिए । नारकी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १२ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारषत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्वातगत मिथ्यादृष्टि नारकी जीवने अतीतकाल में सामान्यलेोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । शंका – सूत्र में नहीं कहा गया यह अर्थ कैसे कहा जा रहा है ? १ विशेषेण गमनुवादेन नरकगतौ प्रथमाय पृथिव्यां नारकैश्चतुर्गुणस्थानै लों कस्यासंख्येयभागः स्पृहः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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